Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 306
________________ ७१८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [६।१४ . केवली श्रुत संघ धर्म और देवोंका अवर्णवाद (अविद्यमान दोषोंका प्रचार) दर्शनमोह के आस्रवके कारण हैं। ६१-६. ज्ञानावरणका अत्यन्त क्षय हो जानेपर जिनके स्वाभाविक अनन्तज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इन्द्रिय कालक्रम और दूर देश आदिके व्यवधानसे परे है और परिपूर्ण है वे केवली हैं। उनके द्वारा उपदेश दिया गया तथा बुद्धचतिशययुक्त गणधरोंके द्वारा धारण किया गया श्रुत है। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयभावनापरायण चतुर्विध श्रमणोंके समूहको संघ कहते हैं । यद्यपि संघ समूहवाची है फिर भी एक व्यक्ति भी अनेक व्रत गुण आदिका धारक होनेसे संघ कहा जाता है। कहा भी है-'गुण संघातको संघ कहते हैं । कम्मोंका नाश करने और दर्शन ज्ञान और चरित्रका संघटन करनेसे संघ कहा जाता है।' अहिंसादि धर्म हैं । देवगति नामकर्मके उदयसे भवनवासी आदि चार प्रकारके देव हैं। ७. गुणवान् और महत्त्वशालियों में अपनी बुद्धि और हृदयकी कलुषतासे अविद्यमान दोषोंका उद्धावन करना अवर्णवाद है। ८. 'केवली भोजन करते हैं, कम्बल आदि धारण करते हैं, तुंबड़ीका पात्र रखते हैं, उनके ज्ञान और दर्शन क्रमशः होते हैं' इत्यादि केवलीका अवर्णवाद है। ६९ मद्य-मांसका भक्षण, मधु और सुराका पीना, कामातुरको रतिदान तथा रात्रिभोजन आदिमें कोई दोष नहीं है, यह सब श्रुतका अवर्णवाद है। १०. ये श्रमण शूद्र हैं, स्नान न करनेसे मलिन शरीरवाले हैं, अशुचि हैं, दिगम्बर हैं, निर्लज्ज हैं, इसी लोकमें ये दुखी हैं, परलोक भी इनका नष्ट है, इत्यादि संघका अवर्णवाद है। ११. जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है। इसके धारण करनेवाले मरकर असुर होते हैं, इत्यादि धर्मका अवर्णवाद है। १२-१३. देव मद्य-मांसका सेवन करते हैं, अहल्या आदिमें आसक्त हुए थे, इत्यादि देवोंका अवर्णवाद है । ये सब सम्यग्दर्शनको नष्ट करनेवाले दर्शनमोहके आस्रवके कारण हैं। चारित्रमोहके आस्रवके कारण कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥ १-३. बाँधे हुए कर्मका द्रव्यक्षेत्रादि निमित्तोंसे फल देने लगना उदय है। कषायों के तीव्र उदयसे होनेवाले संक्लिष्ट परिणाम चारित्रमोहके आस्रवके कारण हैं। जगदुपकारी शीलवती तपस्वियोंकी निन्दा, धर्मध्वंस, धर्ममें अन्तराय करना,किसीको शीलगुण देशसंयम और सकलसंयमसे च्युत करना, मद्य मांस आदिसे विरक्त जीवोंको उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लशोत्पादक ब्रत और वेषोंका धारण, स्व और परमें कषायोंका उत्पादन आदि कषायवेदनीयके आस्रवके कारण हैं। उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकारपूर्वक हँसी, बहुप्रलाप तथा हरएक की हँसी मजाक करना हास्यवेदनीयके आस्रवके कारण हैं । विचित्र क्रीड़ा, दूसरेके चित्तको आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादिके प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना, रति-विनाश, पापशील व्यक्तियोंकी संगति, अकुशल क्रियाका प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीयके आस्रव के कारण हैं । स्वशोक, प्रीतिके लिए परका शोक करना, दूसरेको दुःख उत्पन्न करना, शोकसे व्याप्तका अभिनन्दन आदि शोकवेदनीयके आस्रवके कारण हैं । स्वयं भयभीत रहना, दूसरेको भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास आदि भयवेदनीयके आस्रवके कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदिकी क्रिया और आचारमें तत्पर पुरुषोंसे ग्लानि करना, दूसरेकी बदनामी करनेका स्वभाव आदि जुगुप्सा वेदनीयके आस्रवके कारण हैं । अत्यन्त क्रोधके परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईर्ष्या, मिथ्या भाषण, छलकपट, प्रपंचतत्परता, तीव्र राग, परांगनागमन,

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