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पाँचवाँ अध्याय विकल्पसे दो प्रकारका है । जीवके आठ मध्य प्रदेशोंका, जो ऊपर नीचे चार चार रूपसे स्थित हैं सदा वैसे ही रहते हैं एक दूसरेको नहीं छोड़ते, अनादि बन्ध है। अन्य प्रदेशोंमें कर्मनिमित्तक संकोच विस्तार होता रहता है अतः उनका बन्ध आदिमान है। जैसे क्रोधपरिणत आत्माको क्रोध कहते हैं उसी तरह गरम लोहेके पिंडकी तरह बन्धकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुआ शरीरपरिणत आत्मा ही शरीर हैं, अतः शरीरबन्धके पन्द्रह विकल्प शरीरीमें भी लगा लेना चाहिए । आत्माके योग परिणामोंके द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्माको परतन्त्र बनानेका मूल कारण है । कर्मके उदयसे होनेवाला वह औदारिकशरीर आदिरूप पुद्गलपरिणाम जो आत्माके सुख दुःखमें सहायक होता है, नोकर्म कहलाता है। स्थितिके भेदसे भी कर्म और नोकर्ममे भेद है। कमोकी स्थिति आगे कही जायगी। औदारिक और वैक्रियिक शरीरमें अपनी आयके प्रमाण निपेक होते हैं। औदारिक शरीरकी तीन पल्य उत्कृष्ट स्थिति है, एक समयसे लेकर तीन पल्य तक औदारिक शरीरका अवस्थान है । वक्रियिक शरीरकी तेतीस सागर स्थिति है, एक समय निषेकसे लेकर तेतीस सागरके अन्तिम समय तक वैक्रियिक शरीर ठहरता है। आहारक शरीरकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तैजस शरीरकी ६६ सागर स्थिति है। ज्ञानावरणादि काँकी जो उत्कृष्ट स्वस्थिति है वही कार्मण शरीरकी स्थिति समझनी चाहिए। औदारिक वैक्रियिक तैजस और कार्मण शरीर नामकर्मकी प्रत्येककी बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति है। आहारक-शरीर कर्मकी अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति है।
१०-११. सौक्ष्म्य और स्थौल्य दो दो प्रकारके हैं-एक अन्त्य और दूसरे आपेक्षिक । अन्त्य सौम्य परमाणुओंमें है और आपेक्षिक सौक्ष्म्य बेर आँवला बेल ताड़फल आदिगें है । इसी तरह अन्त्य स्थौल्य जगद्व्यापी महास्कन्धमें तथा आपेक्षिक बेर आँवला बेल आदिमें है।
६१२-१३. संस्थान-आकृति दो प्रकारका है-एक इत्थंलक्षण और दूसरा अनित्थंलक्षण । गोल तिकोना चौकोना लम्बा चौड़ा आदि रूपसे जिसका वर्णन किया जा सके वह इत्थंलक्षण है। उससे भिन्न मेघ आदिका संस्थान 'यह ऐसा है' ऐसा निरूपण न कर सकनेके कारण अनित्थंलक्षण है।
१४. भेद छह प्रकारका है - उत्कर चूर्ण खण्ड चूर्णिका प्रतर और अणुचटनके भेदसे । लकड़ीका आरा आदिसे चीरना उत्कर है । गेहूँ चना आदिका सत्त चून आदि बनाना चूर्ण है । घड़ेके खप्पर हो जाना खंड है। उड़द मूंग आदिकी दाल बनाना चूर्णिका है। अभ्रक आदिके पटल प्रतर हैं । गरम लोहेको घनसे कूटनेपर जो फुलिंगे निकलते हैं उन्हें अणुचटन कहते है।
१५. दृष्टिका प्रतिबन्ध करनेवाला अन्धकार है, जिसे हटानेके कारण दीपक प्रकाशक कहा जाता है।
६१६-१७. प्रकाशके आवरणभूत शरीर आदिसे छाया होती है। छाया दो प्रकारकी है-दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्योंमें आदर्श के रंग आदिकी तरह मुखादिका दिखना तद्वर्णपरिणता छाया है तथा अन्यत्र प्रतिबिम्ब मात्र होती है। प्रसन्नद्रव्यके परिणमन विशेषसे पूर्वमुख पदार्थकी पश्चिममुखी छाया पड़ती है । मीमांसकका यह मत ठीक नहीं है कि-"दर्पणमें छाया नहीं पड़ती किन्तु नेत्रकी किरणें दर्पणसे टकराकर वापिस लौटती हैं और अपने मुखको ही देखती हैं।" क्योंकि नेत्रकी किरणें जैसे दर्पणसे टकराकर मुखको देखती हैं उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुखको देखना चाहिए । इसी तरह जब किरणें वापिस आती हैं तो पूर्वदिशाकी तरफ जो मुख है वह पूर्वाभिमुख ही दिखाई देना चाहिए पश्चिमाभिमुख नहीं ।