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६९२ तस्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[५/२५ उक्त साधन व्यभिचारी है' यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि हम 'मूर्तिमानके द्वारा व्यंग्य होनेसे' ऐसा विशिष्ट हेतु देंगे, फिर जो व्यंग्य होते हैं वे कार्य भी देखे जाते हैं जैसे कि घटादि । पर स्फोटको तो सर्वथा नित्य माना गया है अतः वह व्यंग्यसे विलक्षण होनेके कारण व्यंग्य नहीं बन सकता । 'महान् अहंकार' आदि सांख्यामिमत तत्वोंका दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोटकी व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वोंकी भी। फिर, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं मिलता जो अमूर्त नित्य और निरवयव होकर मूर्त अनित्य और सावयवसे व्यंग्य होता हो । अतः शब्द ध्वनिरूप ही है और वह नित्यानित्यात्मक है यह स्वीकार करना चाहिए । वह पुद्गल द्रव्यकी दृष्टि से नित्य है, श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा सुनने योग्य पर्यायसामान्यकी दृष्टिसे कालान्तर स्थायी है और प्रतिक्षगकी पर्यायकी अपेक्षा क्षणिक है।
६६. बन्ध प्रायोगिक और वैस्रसिकके भेदसे दो प्रकारका है। वैस्रसिक बन्ध भी आदिमान और अनादिमानके भेदसे दो प्रकारका होता है । स्निग्ध रूक्ष गुणोंके निमित्तसे बिजली उल्का जलधारा इन्द्रधनुष आदि रूपपुगल बन्ध आदिमान् है। अनादि वैनसिक बन्ध नव प्रकारका है-धर्मास्तिकाय बन्ध, धर्मास्तिकाय देशबन्ध, धर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, अधर्मास्तिकाय बन्ध, अधर्मास्तिकाय देशबन्ध, अधर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, आकाशास्तिकायबन्ध, आकाशास्तिकाय देशबन्ध और आकाशास्तिकाय प्रदेशबन्ध । सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय है, आधा देश और आधेका आधा प्रदेश कहलाता है । कालाणुओंका कभी परस्परविश्लेष नहीं होता अतः उनका वैनसिक सम्बन्ध अनादि है । एक जीवके प्रदेशोंका संहरण और विसर्पण स्वभाव होने पर भी परस्परविश्लेष नहीं होता अतः अनादि बन्ध है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालका कभी भी परस्पर वियोग नहीं होता अतः इनका अनादि बन्ध है । नानाजोवोंका भी सामान्य दृष्टिसे अन्य द्रव्योंके साथ अनादि सम्बन्ध है। पुद्गल द्रव्यों में भी महास्कन्ध आदिका सामान्य रूपसे अनादि बन्ध है। इस तरह सब द्रव्योंमें बन्धकी सम्भावना है, पर पुद्गलका प्रकरण :होनेसे यहाँ पुद्गलबन्ध ही लेना चाहिए।
६७-९. विनसा अर्थात् स्वाभाविक । पुरुषार्थकी अपेक्षा 'विधि' होती है । विधिसे उलटा 'विस्रसा' शब्द है । प्रयोग अर्थात् पुरुषका काय वचन और मनका संयोग । जो प्रयोगजन्य है उसे प्रायोगिक कहते हैं । यह दो प्रकारका है-एक अजीवविषयक और दूसरा जीव
और अजीव विषयक । लाख और काठ आदिका बन्ध अजीवविषयक बन्ध है। कर्म और नोकर्मबन्ध जीव और अजीव विषयक है । कर्मबन्ध ज्ञानावरणादिके भेदसे आठ प्रकारका है। नोकर्मबन्ध औदारिकादि शरीर विषयक है । बन्ध पाँच प्रकारका भी है - आलपन आलयन संश्लेष शरीर और शरीरीके भेदसे । रथ गाड़ी आदिका लोहेकी साँकल रस्सा आदिसे खींचकर बाँधना आलपन बन्ध है । दीवाल मकान आदिका मिट्टीका गारा ईंट आदिसे परस्पर चिनना आलयन बन्ध है । लाख काठ आदिका संश्लेष बन्ध है । शरीर बन्ध औदारिक आदि शरीरके भेदसे पाँच प्रकारका है। यह संयोगज भंगकी अपेक्षा पन्द्रह प्रकारका भी है। औदारिक शरीर नोकर्मका अन्य औदारिक शरीर नोकर्मसे सम्बन्ध होनेपर (१) औदारिक औदारिक शरीर नोकर्म बन्ध, औदारिक और तैजस शरीरके परस्पर सम्बन्धसे (२) औदारिक तैजस शरीर नोकर्म बन्ध, इसी तरह (३) औदारिक कार्मण कर्म शरीर बन्ध; (४) औदारिक तैजस कार्मण शरीर बन्ध, (५) वैक्रियिक वैक्रियिक शरीर बन्ध, (६) वैक्रियिक तैजसशरीर बन्ध, (७) वैक्रियिक कार्मण शरीर बन्ध, (८) वैक्रियिक तैजस कार्मण शरीर बन्ध, (९) आहारक आहारक शरीर बन्ध, (१०) आहारक तैजस शरीर बन्ध, (११) आहारक कार्मण शरीर बन्ध, (१२) आहारक तैजस कार्मण शरीर बन्ध, (१३) तैजस तैजस शरीर बन्ध (१४) तैजस कार्मण शरीर बन्ध और (१५) कार्मण कार्मणशरीर बन्ध समझना चाहिए। शरीरिबन्ध अनादिमान और आदिमानके