Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 278
________________ ६९० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।२४ स्पर्शका ग्रहण सर्वप्रथम किया है। यद्यपि स्पर्शसुखसे निरुत्सुक जीवोंमें कहीं कहीं रसव्यापार प्रचुर देखा जाता है फिर भी उनके स्पर्शके होनेपर ही रसव्यापार होता है, इसीलिए स्पर्श के बाद रसका ग्रहण किया है क्योंकि रसग्रहण स्पर्शग्रहणके बाद होता है। वायुमें भी रस रूप आदि मानते हैं अतः व्यभिचार दोष नहीं हैं । रूप आदि स्पर्श के अविनाभावी हैं । जिस प्रकार घ्राणके द्वारा ग्राह्य गन्ध द्रव्यमें रूपादि विद्यमान रहनेपर भी अनुभूत या सूक्ष्म होनेके कारण तथा चक्षुरादि इन्द्रियोंके स्थूल विषयग्राहक होनेसे उपलब्ध नहीं होते उसी तरह वायुके रूपादि भी। रूपसे पहिले गन्धका ग्रहण किया है क्योंकि वह अचाक्षुष है । अन्तमें रूपका ग्रहण इसलिए किया है कि वह स्थूलद्रव्यगत हो उपलब्ध होता है। ६. जैसे 'क्षीरिणो न्यग्रोधाः' यहाँ नित्ययोग अर्थमें मत्वर्थीय प्रत्यय किया गया है उसी तरह अनादि पारिणामिक स्पर्शादि गुणोंके नित्य योगमें मतु प्रत्यय है। ६७-१०. मृदु कठिन गुरु लघु शीत उष्ण स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्शके मूल भेद हैं। रस पाँच प्रकारका है-तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर और कषाय । सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे गन्ध दो प्रकारकी है। नील पीत शुक्ल कृष्ण और लोहितके भेदसे रूप पाँच प्रकारका है। इन स्पर्शादिके एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण परिणाम होते हैं । शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥२४॥ ६१. 'जो अर्थको शपति अर्थात् कहता है जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपनमात्र है वह शब्द है' इत्यादि कर्तृ करण और भावसाधनोंमें शब्द आदिका निर्वचन करके, परस्परापेक्षार्थक द्वन्द्व समासके बाद मतुप प्रत्यय करना चाहिए । जो बँधे या जिसके द्वारा बाँधा जाय या बन्धनमात्रको बन्ध कहते हैं । जो लिंगके द्वारा अपने स्वरूपको सूचित करता है या जिसके द्वारा सूचित किया जाता है या सूचनमात्र है, वह सूक्ष्म है। सूक्ष्मके भाव वा कमेको सौम्य कहते हैं । जो स्थूल होता है बढ़ता है या जिसके द्वारा स्थूलन होता है या स्थूलनमात्रको स्थूल कहते हैं । स्थूलका भाव या कर्म स्थौल्य है। जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित हो जाते हैं या संस्थितिको संस्थान कहते हैं । जो भेदन करता है, जिसके द्वारा भेदन किया जाता है या भेदनमात्रको भेद कहते हैं। पूर्वोपात्त अशुभ कर्मके उदयसे जो स्वरूपको अन्धकारावृत करता या जिसके द्वारा किया जाता है या तमनमात्रको तम कहते हैं। पृथिवी आदि सवन द्रव्योंके सम्बन्धसे शरीरादिके तुल्य आकारमें जो प्रकाशका आवरण करे या अपने स्वरूपका छेदन करे वह छाया है। असातावेदनीयके उदयसे अपने स्वरूपको जो तपता है या जिसके द्वारा तपाया जाता है या आतपनमात्रको आतप कहते हैं ।जो निरावरणको उद्योतित करता है, जिसके द्वारा उद्योतित करता है या उद्योतनमात्रको उद्योत कहते हैं। ६२-५. शब्द दो प्रकारके हैं-एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक । भाषात्मक शब्दं अक्षर और अनक्षरके भेदसे दो प्रकारके हैं। अक्षरीकृत शब्दोंसे शास्त्रकी अभिव्यक्ति होती है, यह संस्कृत और अन्यके भेदसे आर्य और म्लेच्छोंके व्यवहारका कारण होता है। अनक्षरात्मक शब्द दो इन्द्रिय आदि जीवोंके होते हैं। अतिशयज्ञान-केवलज्ञानके द्वारा स्वरूप प्रतिपादनमें कारणभूत भी अनक्षरात्मक भाषात्मक शब्द होते हैं। ये सब प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्द प्रायोगिक और वैस्रसिकके भेदसे दो प्रकारके हैं। मेघ आदिकी गर्जना प्रायोगिक है । प्रायोगिक शब्द तत वितत धन और सौषिरके भेदसे चार प्रकारके हैं। पुष्कर भेरी आदिमें चमड़ेके तनावसे जो शब्द होता है वह तत है । वीणा सुघोष आदिसे जो शब्द होता है वह वितत है । ताल घंटा आदिके अभिघातसे होनेवाला शब्द धन है और बाँसुरी शंख आदिसे निकलनेवाला शब्द सौषिर है।

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