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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[५।२२ की अपेक्षा गौण प्रदेशप्रचय ही। ये एकप्रदेशी हैं। दोनों प्रकारके प्रदेशप्रचय न होनेसे ये अस्तिकाय नहीं हैं। विनाशका कारण न होनेसे नित्य हैं । इनमें परप्रत्यय उत्पाद विनाश होता रहता है अतः अनित्य हैं । जैसे सुईमें धागा जानेका मार्ग परिच्छिन्न होता है उसी तरह परिच्छिन्नमूर्ति होनेपर भी रूप रसादिसे रहित होनेके कारण अमूर्त हैं। प्रदेशान्तरमें संक्रमण न होनेसे निष्क्रिय हैं। व्यवहारकाल परिणाम क्रिया और परत्वापरत्वके द्वारा लक्षित होता है । कालकृत वर्तनाका आधार होनेसे यह भी काल कहलाता है। यह स्वयं किसीके द्वारा परिच्छिन्न होकर अन्य पदार्थोके परिच्छेदमें कारण होता है। .
२५. भूत वर्तमान और भविष्यत ये तीनों काल परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं। जैसे वृक्षपंक्तिके किनारे चलनेवाले देवदत्तके कुछ वृक्ष गत कुछ गम्यमान और कुछ गमिष्यमाण होते हैं उसी तरह कालाणुओंकी क्रमिक पर्यायोंके अनुसार पदार्थों में भूत वर्तमान और भविष्यत व्यवहार होता है। मुख्यकालमें भूत आदि व्यवहार गौण है तथा व्यवहारकालमें मुख्य । भूत आदि व्यवहार परस्परापेक्ष हैं। जो क्रियापरिणत द्रव्य कालपरमाणुको प्राप्त होता है वह द्रव्य उस कालके द्वारा वर्तमान समय-सम्बन्धी वर्तनाके कारण वर्तमान कहा जाता है। कालाणु भी उस वर्तमानद्रव्यको स्वसम्बद्ध ही वर्तन कराता है अतः वर्तमान कहा जाता है। वही जब कालवश वर्तनाके सम्बन्धको अनुभव कर चुकता है तब भूत कहा जाता है और कालाणु भी भूत । वही आगे आनेवाली वर्तनाकी अपेक्षा भविष्यत कहा जाता है और कालाणु भी भविप्यत । इसी तरह सूर्यकी प्रतिक्षणकी गतिकी अपेक्षा आवलिका उच्छ्वास प्राण स्तोक लव नालिका मुहूर्त अहोरात्र पक्ष मास ऋतु अयन आदि सूर्यगतिनिमित्तक व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्रमें चलता है क्योंकि मनुष्यलोकके ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहरके ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। इसी आवलिका आदिसे तीनों लोकोंके प्राणियोंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति और कायस्थिति आदिका परिच्छेद होता है । इसीसे संख्येय असंख्येय अनन्त आदि गिनती की जाती है।
६२६. प्रश्न-क्रियामात्र ही काल है, उससे भिन्न नहीं । क्रिया स्वयं परिच्छिन्न होकर अन्य द्रव्योंके परिच्छेदमें कारण होती है अतः वही काल है। परमाणुकी परिवर्तन क्रियाका समय ही 'समय' कहा जाता है, समयके परिमाणको मापनेवाला कोई दूसरा सूक्ष्मकाल नहीं है। 'समय क्रियाका समुदाय आवलिका, आवलिकाका समुदाय उच्छ्वास' आदिमें उच्छवासके मापनेमें आवलिका क्रिया काल है और आवलिकामें परमाणुक्रिया रूप समयकाल है। इसी तरह आगे भी समझना चाहिए। लोकव्यवहारमें भी 'गो-दोहनकाल, रसोईका समय' आदि कालव्यवहार क्रियामूलक ही हैं । एक क्रियासे दूसरी क्रिया परिच्छिन्न होती हुई कालसंज्ञा प्राप्त करती है।
उत्तर-ठीक है, क्रियाकृत ही यह व्यवहार होता है कि 'उच्छ्वासमात्रमें किया, मुहूर्त में किया' आदि, परन्तु उच्छ्वास निश्वास मुहूर्त आदि संज्ञाओंको 'काल' व्यपदेश बिना किसी कारणके नहीं हो जाता। उसका कारण काल है अन्यथा कालव्यवहार का लोप हो जायगा। जैसे देवदर में 'दंडी' यह व्यपदेश अकस्मात् नहीं होता किन्तु उसका कारण दंडका सम्बन्ध है उसी तरह उक्त व्यवहारोंमें 'काल' व्यपदेशके लिए कालद्रव्य मानना आवश्यक है।
६१८. क्रिया मात्रको काल मानने में वर्तमान'का अभाव हो जायगा । पट बुनते समय जो तन्तु बुना गया वह तो 'अतीत' हो गया तथा जो बुना जायगा वह 'अनागत' होगा। इन दोनोंके बीचमें कोई अनतिक्रान्त और अनागामिनी क्रिया है ही नहीं जिसे वर्तमान कहा जाय । अतीत और अनागत व्यवहार भी वर्तमानकी अपेक्षा होता है अतः वर्तमानके अभावमें उनका भी अभाव हो जायगा । 'प्रारम्भसे लेकर कार्य समाप्ति तक होनेवाली क्रियाओंका समूह 'वर्तमान है' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रतिज्ञाविरोध आता है। पहिले आपने क्रियाको