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५।२१-२२]
पाँचवाँ अध्याय ६१३. कथश्चित् नित्यानित्य आत्माके ही सुख-दुःखादि हो सकते हैं सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्यके नहीं। नित्यपक्षमें विकार-परिणमन नहीं हो सकता और अनित्यपक्षमें स्थिति नहीं है। नित्यपक्षमें आत्मा पूर्व और उत्तरकालमें सर्वथा एक जैसी बनी रहती है, उसमें कोई परिणमन नहीं होता, अतः सुख आदिकी कल्पना ही नहीं हो सकती । अनित्य पक्षमें पूर्व और उत्तरमें कोई मेल नहीं बैठता, स्थिति नहीं है, अतः सुखादि नहीं हो सकते । अवस्थित आत्मा ही इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंके सम्पर्कसे कुशल-अकुशलभावना पूर्वक सुखादिका अनुभव कर सकता है। कुशल और अकुशल भावनाएँ पूर्वानुभूतकी स्मृति और तत्पूर्वक चेष्टाओंसे सम्बन्ध रखती हैं। जीवोंका उपकार -
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ जीव परस्पर उपकार करते हैं ।
६१-२ परस्पर शव्द कर्मव्यतिहार अर्थात क्रियाक आदान-प्रदानको कहता है। स्वामि सेवक. गुरु-शिष्य आदि रूपसे व्यवहार परस्परोपग्रह है। स्वामी रुपया देकर तथा सेवक हितप्रतिपादन और अहितप्रतिरोधके द्वारा परस्पर उपकार करते हैं। गुरु उभयलोकका हितकारी मार्ग दिखाकर तथा आचरण कराके और शिष्य गुरुकी अनुकूलवृत्तिसे परस्परके उपकारमें प्रवृत्त होते हैं।
३-४. यद्यपि 'उपग्रह' का प्रकरण हे फिर भी यहाँ 'उपग्रह' शब्दके द्वारा पहिले सूत्रमें निर्दिष्ट सुख दुःख आदि चारोंका ही प्रतिनिर्देश समझना चाहिए । 'उपग्रह' शब्द सूचित करता है कि अन्य कोई नया उपकार नहीं है, किन्तु पूर्वसूत्र में निर्दिष्ट ही उपकार हैं।' 'जिस प्रकार रतिक्रियामें स्त्री और पुरुष परस्परका उपकार करते हैं इस प्रकारका सर्वथा नियम पर स्परोपकारका नहीं है' इस बातकी सूचना उपग्रह' शब्दसे मिल जाती है। कोई जीव अपने लिए सुख उत्पन्न करके कदाचित दूसरे एकको दोको या बहुतांको सुखी कर सकता है और दुःख भी, दुःख उत्पन्न करके सुखी भी कर सकता है और दुःखी भी। अतः कोई निश्चित नियम नहीं है। कालका उपकार
___ वतनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ वर्तना परिणाम क्रिया और परत्वापरत्व व्यवहार ये कालद्रव्यके उपकार हैं।
१-३. 'वर्नत अनया अस्यां वाला करण और अधिकरणमें विग्रह करके यदि वर्तना शब्दकी सिद्धि की जाती है तो युट प्रत्ययमें टित होनेसे कीप प्रत्यय होनेपर 'वर्तनी' प्रयोग बनेगा अतः 'वय॑ते वर्तनमानं वा वर्तना' यह णिजन्तसे युच प्रत्यय करके बनाया जाता है। अथवा 'वर्तनशीला वर्तना' ऐसा तच्छील अर्थमें युच करके वर्तना शब्द बन जाता है।
४. हर एक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ताकी अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते हैं । तात्पर्य यह कि पदार्थ अपनी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ताका प्रतिक्षण अनुभव
धर्मादि द्रव्य अपनी अनादि या आदिमान पर्यायोंमें प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूपसे परिणत होते रहते हैं यही स्वसत्तानुभूति वर्तना है। सादृश्योपचारसे प्रतिक्षण 'वर्तना वर्तना' ऐसा अनुगत व्यवहार होनेसे यद्यपि यह एक कही जाती है पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्यकी अपनीअपनी वर्तना जुदी जुड़ी है।
५. वर्तना प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्यमें होती रहती है। यह अनुमानसे इस प्रकार सिद्ध है-जैसे तन्दुलको पकनेके लिए बटलोई में डाला और वह आधा घण्टेमें पका तो यह नहीं समझना चाहिए कि २९ या २९।। मिनट तो वह ज्योंका त्यों रखा रहा और अन्तिम क्षण में पककर भात बन गया हो। उसमें प्रथम समयसे ही सूक्ष्मरूपसे पाक बराबर होता रहा है। यदि