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५।४-५]
पाँचवाँ अध्याय किया जाय तब तक 'अजीवोंमें द्रव्यरूपता वन ही नहीं सकती। अतः पृथक् सूत्र बनाना उचित है इसीलिए 'च' शब्द भी सार्थक है।
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥.४ ॥ ये द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी हैं।
६१-२. नित्यशब्दका अर्थ है ध्रौव्य । द्रव्य जिन जिन गतिहेतुत्व स्थितिहेतुत्व आदि विशेषलक्षणों तथा अस्तित्व आदि सामान्यलक्षणोंसे युक्त है उन उन स्वभावोंका कभी भी विनाश नहीं होता। इसी तद्भावाव्ययको नित्य कहते हैं।
६३-५. धर्मादि द्रव्य कभी भी अपनी छह संख्याको नहीं छोड़ते, न तो सात होते हैं और न पाँच, इसीलिए ये अवस्थित हैं। अथवा धर्माधर्मादिद्रव्योंके जितने प्रदेश बताये गये हैं उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती। धर्मादि द्रव्योंके गत्युपग्रह स्थित्युपग्रह उत्पाद व्यय ध्रौव्य मूर्तिमत्त्व और अमूर्तत्व आदि अनेक परिणमन होते हैं, अतः नित्यके बाद भी अवस्थितका कथन करनेसे यह सूचित होता है कि अनेकपरिणमन होनेपर भी कभी भी धर्मादिकमें मूर्तत्व या चेतनत्व नहीं आ सकता, न जीवोंमें अचेतनत्व और न पुद्गलोंमें अमूर्तत्व आदि। इन धर्मादिक द्रव्योंमें द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयकी गौण मुख्य विवक्षासे ये अनेक परिणमन बन जाते हैं। इनमें कोई विरोध नहीं आता ।
६६-७. अथवा, नित्य' शब्द अवस्थितका विशेषण है। जैसे गमन शयन आदि अनेक क्रियाओंके करते रहनेपर भी सतत प्रजल्प-बकवास करनेके कारण देवदत्तमें 'नित्यप्रजल्पित' व्यवहार कर दिया जाता है; उसी तरह बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे उत्पाद व्यय होनेपर भी धर्मादि द्रव्य कभी भी अपने अमूर्तत्व स्वभावको नहीं छोड़ते अतः इन्हें नित्यावस्थित कहते हैं। परिस्पन्द रूप क्रियाकी निवृत्तिके लिए अवस्थित पदकी सार्थकता नहीं है क्योंकि आगे इस क्रियाकी निवृत्तिके लिए 'निष्क्रियाणि' सूत्र कहा जानेवाला है।
६८. 'अरूप' पद रूप और स्पर्शादिका निषेध करके 'अमूर्तत्व' स्वभावकी सूचना देता है।
६६. वृत्तिमें "धर्मादिद्रव्य अवस्थित हैं, वे कभी भी अपनी पाँच संख्याको नहीं छोड़ते" यह कथन होनेसे पडद्रव्योपदेशका व्याघात नहीं होता; क्योंकि वृत्तिमें 'कालश्च' सूत्रसे निर्दिष्ट होनेवाले कालद्रव्यको अपेक्षा न करके 'पाँच' का निर्देश किया है।
रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥ धर्मादि द्रव्योंके अरूपी होनेपर भी पुद्गलद्रव्य रूपी है।
६१. यद्यपि रूप शब्दके स्वभाव अभ्यास श्रुति महाभूत गुणविशेष और मूर्ति आदि अनेक अर्थ हैं परन्तु यहाँ शास्त्रानुसार 'मूर्ति' अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
६२. रूप रस गन्ध और स्पर्श तथा गोल त्रिकोण चौकोण लंबा चौड़ा आदि आकृतियों रूप परिणमनको मूर्ति कहते हैं।
६३-६. अथवा, रूप शब्दसे आँखके द्वारा ग्रहण होनेवाला रूप नामका गुणविशेष लेना चाहिए । रस गन्ध आदि रूपके अविनाभावी हैं अतः रूपके कहनेसे उनका ग्रहण हो जाता है । यद्यपि पुद्गलद्रव्यसे रूप भिन्न नहीं है क्योंकि द्रव्यको छोड़कर पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती, तो भी पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिसे कथञ्चित् भेद है ही। पुदलद्रव्य स्थिर रहता है पर रूपादि उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, द्रव्य अनादि है रूपादि आदिमान , द्रव्य अन्वयी होता है और रूपादि व्यतिरेकी, अतः भेदविवक्षासे 'रूपी' यहाँ 'इन्' प्रत्यय हो जाता है। फिर,