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पाँचवाँ अध्याय आदि अनेक बाह्य कारण अपेक्षित होते हैं उसी तरह पक्षी आदिकी गति और स्थिति भी अनेक बाह्य कारणोंकी अपेक्षा करती हैं । इनमें सबकी गति और स्थिति के लिए साधारण कारण क्रमशः धर्म और अधर्म होते हैं । इस तरह अनुमानसे धर्म और अधर्म प्रसिद्ध हैं। कारणोंका संसर्ग ही कार्योत्पादक होता है न कि जिन किन्ही पदार्थोंका संसर्ग। अतः प्रतिविशिष्ट तन्तु जलाहा तुरी आदिके संसर्गसे पटकी उत्पत्तिकी तरह गति और स्थितिके साधारण कारण-धर्म और अधर्मके साथ ही अन्य कारणोंका संसर्ग कार्यकारी हो सकता है । संसर्ग भी अनेक कारणोंका ही होता है एकका नहीं । बहुत कारणोंका संसर्ग भी कारणभेदसे भिन्न-भिन्न ही है, अतः अनेक कारणोंसे कार्योत्पत्ति होती है यही पक्ष स्थिर रहता है।
३५.-- यदि यह नियम बनाया जाय कि 'जो जो पदार्थ प्रत्यक्षसे उपलब्ध न हों उनका अभाव है' तो सभी वादियोंको स्वसिद्धान्तविरोध दोष होता है; क्योंकि प्रायः सभी वादी अप्रत्यक्ष पदार्थीको स्वीकार करते ही हैं। बौद्ध मानते हैं कि प्रत्येक रूपपरमाणु अतीन्द्रिय हैं, अनेक परमाणुओंका समुदाय इन्द्रिय ग्राह्य होता है। चित्त और चैतसिक विकल्प अतीन्द्रिय हैं । सांख्य मानते हैं कि कार्यरूप व्यक्त प्रधानके विकार पृथिवी आदि प्रत्यक्ष हैं परन्तु सत्त्वरज और तस ये कारणभूत गुण तथा परमात्मा अप्रत्यक्ष है। वैशेषिकका कहना है कि-महत्त्व अनेकद्रव्यत्व और उद्भूतरूप होनेसे ही रूपकी उपलब्धि होती है। अतः अनेक परमाणुओंके समुदायसे उत्पन्न स्थूल पृथिवो आदि और उसी में समवायसे रहनेवाले रूपादि संख्या परिमाण संयोग विभाग आदि गुण प्रत्यक्ष होते हैं तथा परमाणु आकाश आदि अप्रत्यक्ष हैं। यदि लाठी आदि कारणोंकी तरह धर्म और अधर्मका उपलब्धि नहीं होनेसे अभाव माना जाता है तो विज्ञान आदि, सत्त्व आदि तथा परमाणु आदिका भी अभाव मानना पड़ेगा। इस तरह सभी मतवादियोंको स्वसिद्धान्तविरोध दूपण होता है । यदि परमाणु आदिका कार्य से अनुमान किया जाता है तो धर्म और अधर्मका भी अनुमान भानने में क्या विरोध है ? जैसे तुम्हारे ही जीवन मरण सुख दुःख लाभालाभ आदि पर्यायोंका जो कि मनुष्यमात्रको अतीन्द्रिय होनेसे मनुष्यमात्रके प्रत्यक्ष नहीं हैं, पर सर्वज्ञके द्वारा उनका साक्षात्कार होनसे अस्तित्व सिद्ध है उसी तरह तुम्हारे प्रमाणके अविषय भी धर्म और अधर्मका अस्तित्व सर्वज्ञ-प्रत्यक्ष होनेसे सिद्ध ही है।
३६. प्रश्न-जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दधि आदि पुदलपरिणामांकी उत्पत्ति परस्पराश्रित है। इसके लिए किसी धर्म और अधर्म जैसे अतीन्द्रिय द्रव्यकी आवश्यकता नहीं है उसी तरह जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिके लिए भी उनकी आवइयकता नहीं है ? उत्तर-ज्ञानादि पर्यायोंकी उत्पत्तिके लिए भी 'काल' नामक साधारण वाह्य कारणकी आवश्यकता है उसी तरह गति और स्थितिके लिए साधारण बाह्य कारण-धर्म और अधर्म होना ही चाहिए।
३७-४० प्रश्न-अदृष्ट आत्माका गुण है, इसीके निमित्तसे सुख दुःखरूप फल तथा उनके साधन जुटते हैं। वैशेषिक सूत्र में कहा भी है कि-"अग्निका ऊपरकी ओर जलना, वायका तिरछा वहना, परमाणु और मनकी आद्य क्रिया, ये सव अदृष्टसे होते हैं। उपसर्पण अपसर्पण वातपित्तसंयोग और शरीरान्तरसे संयोग आदि सभी अष्टकृत हैं।" इसी अदृष्टसे गति और स्थिति हो जायगी ? उत्तर-पुदल द्रव्योंमें अचेतन होनेसे अदृष्ट नहीं पाया जाता, अतः यदि गति और स्थितिको अदृष्यहेतुक माना जाता है तो पुद्गलोंमें गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी। यह समाधान भी उचित नहीं है कि-'जो घटादि पुद्गल जिस आत्माका उपकार करेंगे उस आत्माके अदृष्टसे उन पुद्गलोंमें गति और स्थिति हो जायगी' क्योंकि अन्य द्रव्यका धर्म अन्य द्रव्यमें क्रिया नहीं करा सकता। यह हम पहिले ही बता आये हैं कि जो स्वाश्रयमें क्रियाको उत्पन्न नहीं करता वह अन्य द्रव्योंमें क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि अदृष्टहेतुक
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