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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार और यदि ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमको चेतनात्मक होनेसे चक्षु आदिभाव इन्द्रियोंका यहाँ अग्रहण है तो भावमन भी चेतन है, अतः उसका ग्रहण नहीं होना चाहिए था। यह तर्क भी ठीक नहीं है कि 'चूँकि मन चक्षुरादि इन्द्रियोंकी तरह अवस्थित नहीं है अनवस्थित है, जैसे चक्षुरादि इन्द्रियोंके आत्मप्रदेश नियतदेशमें अवस्थित हैं उस तरह मनके नहीं है इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं, और इसीलिए उसका पृथक अग्रहण किया गया है। क्योंकि अनवस्थित होने पर भी वह क्षयोपशमनिमित्तक तो है ही। जहाँ-जहाँ उपयोग होता है वहाँ वहाँ के अंगुलके असंख्यातभाग प्रमाण आत्मप्रदेश मनके रूपसे परिणत हो जाते हैं। इसी तरह यदि आत्मपरिणाम होनेसे चक्षुरादिका यहाँ अग्रहण किया है तो वचनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वचन भी ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होते हैं। यदि कहो कि द्रव्यवचन जो कि बाहर निकलते हैं, पौगलिक हैं, अतः उनके संग्रहके लिए वचनका ग्रहण है तो द्रव्येन्द्रिय भी पोद्गलिक हैं, अतः उनका संग्रह 'च' शब्दसे करना ही चाहिए ।
१२. प्रश्न-धर्मादि द्रव्य चूँकि अप्रत्यक्ष हैं अतः गत्युपग्रह आदिका वर्णन करना उचित है पर पुद्गल तो प्रत्यक्ष है, उसके उपकार वर्णन करनेसे क्या लाभ ? यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि सूर्य पूर्व में उदित होता है पश्चिममें डूबता है, गुड़ मीठा है आदि। उत्तरकुछ पुद्गल भी अप्रत्यक्ष होते हैं । औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण ये शरीर कर्म मूलतः सूक्ष्म होनेसे अप्रत्यक्ष हैं, उनके उदयसे बने हुए औदारिकादि कुछ स्थूल शरीर प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष हैं । मन भी अप्रत्यक्ष है। वचन और श्वासोच्छास कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष । अतः पुद्गलाके उपकारोंका स्पष्ट विवेचन करनेके लिए शरीरादिका उपदेश किया है।
१३-१४. शरीरों का वर्णन किया जा चुका है। कार्मण शरीर अनाकार होकर भी चूंकि मूर्तिमान पुद्गलोंके सम्बन्धसे अपना फल देता है, अतः वह पौद्गलिक है । जैसे धान्य पानी धूप आदि मूर्तिमान पुद्गलोंके सम्बन्धसे पकता है अत एव पौद्गलिक है उसी तरह गुड़-कंटक आदि मूर्तिमान् पुद्गल द्रव्योंके सम्बन्धसे कमांका विपाक होता है, अतः य पोद्गलिक है । कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्तिमान पदार्थके सम्बन्धसे नहीं पकता।
१५--१७. वचन दो प्रकारके हैं-द्रव्यवचन और भाववचन। दोनों ही पौगलिक हैं। भाववचन वीर्यान्तराय और मति श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयके निमित्तसे होते हैं अतः पुदलके कार्य होनेसे निमित्तकी अपेक्षा पौद्गलिक हैं। यदि उक्त क्षयोपशम आदि न हो तो भाववचन हो ही नहीं सकते। भाववचनकी सामर्थ्यवाले आत्माके द्वाग जो पुद्गल तालु आदिके द्वारा वचनरूपसे परिणत होते हैं वह द्रव्यवचन है। यह भी पौगलिक है क्योंकि श्रीवन्द्रि यका विषय होता है। जिस प्रकार बिजली एक बार चमककर फिर नष्ट हो जाती है और आँखोंसे नहीं दिखाई देती उसी तरह एक बार सुने गये वचन विशीर्ण हो जानेसे फिर वे ही दुबारा नहीं सुनाई देते । जैसे प्राणेन्द्रियके द्वारा ग्राह्य गन्धद्रव्यमें अविनाभावी रूप रस स्पर्श आदि विद्यमान रहकर भी सूक्ष्म हानेसे उपलब्ध नहीं होते उसी प्रकार शब्द भी चक्षुरादि इन्द्रियोंसे गृहीत नहीं होता।
१८-१९. 'शब्द अमूर्त है क्योंकि वह अमूर्त आकाशका गुण है' यह पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि मूर्तिमानके द्वारा ग्रहण प्रेरणा और अवरोध होनेसे वह पौद्गलिक है, मूर्त है। शब्द मूर्तिमान इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होता है। वायुके द्वाग रूईकी तरह एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्रेरित किया जाता है क्योंकि विरुद्ध दिशामें स्थित व्यक्तिको वह सुनाई देता है । नल बिल रिकार्ड आदिमें पानीकी तरह शब्द रोका भी जाता है। अमूर्त पदार्थ में ये सब बातें नहीं होती । शङ्काश्रोत्र आकाश रूप है अतः अमूर्त के द्वारा अमूर्त शब्दका ग्रहण हो जाता है। वायुके द्वारा शब्द प्ररित नहीं होता क्योंकि शब्द गुण है और गुणमें क्रिया नहीं होती किन्तु संयोग विभाग