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७] पाँचवाँ अध्याय
६६३ इच्छा करनेवाले आत्माको चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तरमें उपयुक्त आत्माको वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। आयुके क्षय हो जाने पर आत्माके निकल जाने पर शरीरमें विद्यमान भी इन्द्रियाँ रूपादिदर्शन नहीं कराती, अतः ज्ञात होता है कि आत्मामें ही वह शक्ति है, इन्द्रियाँ तो मात्र बलाधायक होती हैं, उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूपसे परिणमन करनेवाले द्रव्योंकी गति आदिमें धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामथ्यसे गमन न करने पर भी सभी द्रव्योंसे संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है उसी तरह धर्मादि द्रव्योंकी भी गति आदिमें निमित्तता समझनी चाहिए। च शब्दसे धर्म-अधर्म और आकाशका सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है। धर्माधर्मादिमें निष्क्रियत्वका नियम होनेसे अर्थात् ही जीव और पुद्गलमें स्वपरप्रत्यय सक्रियता सिद्ध हो जाती है।
६७-१३. प्रश्न-आत्मा स्वयं तो सर्वगत होनेसे निष्क्रिय है, केवल क्रियाडेतु गुण अदृष्टके समवायसे पर पदार्थों की क्रियामें हेतु होता है। अतः आत्माको सक्रिय कहना उचित नहीं है ? उत्तर-जैसे वायु स्वयं क्रियाशील होकर ही वृक्ष आदिमें क्रिया करती है उसी तरह स्वयं क्रिया स्वभाव आत्माके वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षय या क्षयोपशम, अङ्गोपाङ्ग नाम कर्मका उदय और विहायोगति नामकर्मसे विशेप शक्ति मिलने पर गतिमें तत्पर होते ही हाथ पैर आदिमें क्रिया होती है। निष्क्रिय आत्मा दूसरे पदार्थमें क्रिया नहीं करा सकता। अतः वैशेपिकका यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है-"आत्मसंयोग और प्रयत्नसे हाथमें क्रिया होती है" क्योंकि जिस प्रकार निष्क्रिय आकाशका घटादिकमें संयोग होनेपर भी घटमें क्रिया नहीं होती उसी तरह निष्क्रिय आत्मामें भी हाथ आदिसे संयोग होनेपर भी क्रिया नहीं हो सकती। जैसे दो जन्मान्धोंके सम्बन्धसे दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं होती उसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न जब दोनों निष्क्रिय हैं तब इनके सम्बन्धसे क्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती। वैशेपिक सूत्र में बताया है कि “दिशा काल और आकाश क्रियावाले द्रव्योंसे विलक्षण होनेसे निष्क्रिय हैं। इसी तरह कर्म और गुण पदार्थ भी निष्क्रिय हैं।" संयोग और प्रयत्न दोनों गुण हैं अतः निष्क्रिय हैं। यह तर्क भी ठीक नहीं है कि “ जैसे अग्निसंयोग उष्णताकी अपेक्षा करके घट आदि पदार्थों में पाकज रूप आदिको उत्पन्न करता है स्वयं अग्निमें नहीं उसी तरह अदृष्टकी अपेक्षा लेकर आत्मसंयोग
और प्रयत्न हाथ आदिमें क्रिया उत्पन्न कर देंगे अपनेमें नहीं।" क्योंकि इससे तो हमारा ही पक्ष सिद्ध होता है। अग्निसंयोगका दृष्टान्त भी ठीक नहीं है क्योंकि अनुष्णशीत अप्रेरक अनुपघाती और अप्राप्त संयोग, रूपादिकी उत्पत्ति या उच्छेदमें कारण नहीं हो सकता । गुरुत्व भी क्रियापरिणामी द्रव्यका गुण होकर ही अन्य द्रव्यमें कियाहेतु हो सकता है। इसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न भी क्रियापरिणामी द्रव्यके गुण होकर ही क्रियाहेतु होंगे। अतः तथापरिणत-क्रियापरिणत द्रव्यको ही क्रियाहेतु मानना उचित है। धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलकी गतिमें अप्रेरक कारण है अतः वह निष्क्रिय होकर भी वलाधायक हो सकता है पर आप तो आत्मगुणको परकी क्रियामें प्रेरक निमित्त मानते हैं अतः धर्मारितकायका दृष्टान्त विषम है। कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरकनिमित्त नहीं हो सकता । धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र बलाधायक हो सकता है पर निष्क्रिय आत्माका गुण, जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता क्रियाका बलाधायक भी संभव नहीं है । यदि गुणका पृथक् सद्भाव मानते हैं तो दोनोंका अभाव हो जायगा।
६१४-१६. यदि आत्माको निष्क्रिय मानते हैं तो आकाशप्रदेशकी तरह वह शरीरमें क्रियाहेतु नहीं हो सकेगा। एकान्तसे अमूर्त और निष्क्रिय आत्माका शरीरसे सम्बन्ध भी संभव नहीं, अतः परस्पर उपकार नहीं बन सकेगा । जैन तो कार्मणशरीरके सम्बन्धसे आत्मामें क्रिया