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६६८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[५।१२ ही आदि और अन्त होनेसे अणु अप्रदेशी है। जैसे कि प्रदीपन करनेके कारण प्रदीपकी संज्ञा सार्थक है उसी तरह अणु अर्थात् सूक्ष्म होनेसे 'अणु' संज्ञा भी सार्थक है। यदि अणुके भी प्रदेशप्रचय हो तो फिर वह अणु ही नहीं कहा जायगा, किन्तु उसके प्रदेश अणु कहे जायँगे।
- ४-५. अप्रदेशी होनेसे परमाणुका खरविषाणकी तरह अभाव नहीं किया जा सकता; क्योंकि पहिले कहा जा चुका है कि परमाणु एकप्रदेशी है न कि सर्वथा प्रदेशशून्य । जैसे विज्ञानका आदि मध्य और अन्त व्यपदेश न होने पर भी अस्तित्व है उसी तरह परमाणुमें भी आदि अन्त और मध्य व्यवहार न होने पर भी उसका अस्तित्व है, खरविपाणकी तरह उसका अभाव नहीं है।
लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ इन सभी द्रव्योंका लोकाकाशमें अवगाह है।
६१. यद्यपि पुद्गलोंका प्रकरण है फिर भी यहाँ धर्मादि सभी द्रव्योंकी सामान्यरूपसे विवक्षा है। अतः सभी द्रव्योंके आधारका यहाँ कथन है।
९२-४. जैसे धर्मादि द्रव्योंका लोकाकाश आधार है उस तरह आकाशका अन्य आधार नहीं है। क्योंकि उससे बड़ा दूसरा द्रव्य नहीं है जिसमें आकाश आधेय बन सके । अतः सर्वतः अनन्त यह आकाश स्वप्रतिष्ठ है। इस तरह अनवस्था दूषण भी नहीं आता। आकाशका अन्य आधार, उसका अन्य तथा उसका भी अन्य आधार मानने में ही अनवस्था होती है।
६५-६. एवंभूतनयकी दृष्टिसे देखा जाय तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही है, इनमें आधाराधेयभाव नहीं है । व्यवहारनयसे ही परस्पर आधाराधेयभावकी कल्पना होती है। व्यवहारसे ही वायुके लिए आकाश, जलको वायु, पृथिवीको जल, सब जीवोंको पृथिवी, जीवके लिए अजीव, अजीवके लिए जीव,कर्मके लिए जीव, जीवके लिए कर्म, तथा धर्म अधर्म और कालके लिए आकाश आधार माना जाता है । परमार्थसे तो आकाशकी तरह वायु आदि भी स्वप्रतिष्ठ ही हैं।
७. जैसे व्यवहारनयसे आस्ते गच्छति आदि कर्तृसमवायिनी क्रियाओंका कर्ता और 'ओदनको पकाता है, घड़ेको फोड़ता है' आदि कर्मसमवायिनी क्रियाओंका कर्म आधार माना जाता है तथा क्रियाविष्ट कर्ता और कर्मका आधार आसन और बटलोई समझी जाती है उसी तरह आकाशादिमें भी समझना चाहिए। परमार्थसे एवंभूतनयकी विवक्षामें तो जैसे क्रिया क्रियाके स्वरूपमें ही है और द्रव्य अपने स्वरूपमें, उसी तरह सभी द्रव्य स्वाधार ही हैं।
६८-९. जिस प्रकार कुण्ड और बेरमें आधाराधेयभाव माननेपर पूर्वापरकालता और युतसिद्धि है उस तरह आकाश और धर्मादि द्रव्यों में नहीं है। क्योंकि हाथ और शरीर आदिमें आधाराधेयभाव होनेपर भी न तो पूर्वापरकालता है और न युतसिद्धि ही, कारण दोनों युगपत उत्पन्न होते हैं और अयुतसिद्ध हैं। आकाश और धर्मादि द्रव्य अनादि पारिणामिक हैं, इनमें कोई पहिलेका और कोई बादका नहीं है। अतः पूर्वापरीभाव न होनेपर भी आधाराधेयभाव मानने में कोई विरोध नहीं है। फिर यह ऐकान्तिक नियम भी नहीं है कि युतसिद्ध या अयुतसिद्धमें ही आधाराधेयभाव होता हो, स्तम्भ और सार जैसे अयुतसिद्ध पदार्थों में और कुण्ड और बदर जैसे युतसिद्ध पदार्थोंमें, दोनों में ही आधाराधेयभाव देखा जाता है।
१०-१४. जहाँ पुण्य और पाप काँका सुखदुःख रूप फल देखा जाता है वह लोक है। इस व्युत्पत्तिमें लोकका अर्थ हुआ आत्मा । अथवा, जो लोके अर्थात् देखे-जाने पदार्थांको वह लोक अर्थात् आत्मा। यद्यपि दोनों प्रकारकी व्युत्पत्तियों में जीवको ही लोकसंज्ञा प्राप्त होती है तथापि