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तत्त्वज्ञान तरंगिणी प्रथम अध्याय पूजन
मात्र जानना और देखना और न कोई मेरा काम । मुझको अपना ज्ञान हो गया पर कर्तृत्व न मेरा काम ||
२०. ॐ ह्रीं सकलमलरहितविमलचिद्रूपाय नमः । अत्यानन्दस्वरूपोऽहम् । वीरछंद
दोष विनाशक चित्स्वरूप से मैंने प्राप्त किया चिद्रूप | जो न इसे धारण कर पाते वे ही रहते हैं विद्रूप ॥ परम सौख्य भंडार परम पावन चिद्रूप शुद्ध मेरा । इसको ही धारण करता है यही ध्रौव्य है गुण मेरा ॥ जड़ पुद्गल धन के अधिपति तो इस जग मध्य बहुत सारे। पर चिद्रूप शुद्ध धन पति तो थोड़े से महिमा धारे ॥२०॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपलक्षण प्रतिपादक प्रथमाध्याये सहजानन्दस्वरपाय पूणअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य
छंद पद्धटिका
प्रभु ज्ञान भाव से हो अमुक्त। अज्ञान भाव से सदा मुक्त। तुम परम शान्ति से हो अमुक्त । तुम हो अशान्ति से सदा मुक्त ॥ हो कर्म भाव से आप मुक्त। शिव सुख अपूर्व से हो अमुक्त । स्वचतुष्टय से हो प्रभु अमुक्त पर चतुष्टय से हो सदा मुक्त ॥ यह भव्य दशा पाऊं नामी । मैं मुक्त अमुक्त बनूं स्वामी । चैतन्य प्रभा से हो अमुक्त । भव विभ्रम से हो पूर्ण मुक्त ॥ गीत पूर्ण संयम की दशा आज मैंने सुखमयी काल लब्धि स्वयं पास आयी है || मैं अनादि से दुखी था स्वभाव को झूला । मोह रागादि भाव में ही प्रति समय फूला ॥ मुझे तो आत्म स्वछवि पूर्णतः ही भायी है ।
पायी है ।