Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 364
________________ ३५५ - श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान बहिरात्मा तो आस्रव बंध पाप भाव का कर्ता है । कभी कभी पापानुबंधि पुण्यों का भी यह कर्ता है ॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. । | जयमाला छंद सखी पुण्यों का पुंज बढ़ाया स्वर्गो को शीष चढ़ाया । फिर गिरा अधोगति स्वामी सुधि जांगी अन्तर्यामी ॥ उन्माद ह्रदय में आया चिद्रूप शुद्ध बिसराया । निज आत्म तत्त्व जब ध्याया चिद्रूप शुद्ध निज पाया ॥ पापों के गढ़ सब जीते भवरोग हो गए रीते । हैं पुण्य सभी दुखकारी हैं रंच नहीं सुखकारी ॥ हैं शुद्ध भाव ही अपना दुखमय विभाव है सपना । चिद्रूप शुद्धं को ध्याया तो आतम ध्यान लगाया | आत्मानुभूति उर जागी पर परिणति तत्क्षण भागी । आनन्द अतीन्द्रिय आया अपना वैभव जब पाया ॥ रागादिक दोष हरे है निज गुण के कोष भरे हैं । सर्वज्ञ स्वपद के स्वामी अरहंत देव हैं नामी ॥ चिद्रूप शुद्ध को पाकर हैं सुखी मोक्ष में जाकर । मैं भी उनका अनुयायी मैं भी हूं अमृत पायी ॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. । आशीर्वाद दोहा . परम शुद्ध चिद्रूप ही है रत्नत्रय स्रोत । ज्ञान भावना रूप है सुख से ओतः प्रोत || इत्याशीर्वाद :

Loading...

Page Navigation
1 ... 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394