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३७४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन सब संकल्प विकल्प त्याग दे यदि सामायिक करना है | रागादिक जल्पों को क्षय कर अगर कर्म वसु हरना है | शुद्ध चिद्रूप की छाया जिसे भी प्राप्त हो जाती । जागती हैं सुमति उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो जाती ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२२॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२३) यदैव विक्रमातीताः शतपंचदशाधिकाः ।
षष्टिःसंवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ॥२३॥ अर्थ- जिस समय विक्रम संवत् के पंद्रह सौ साठ वर्ष ( शक संवतं के चौदह सौ पच्चीस अथवा ख्रीष्ट संवत् के पंद्रह सौ तीन वर्ष) बीत चुके थे। उस समय इस तत्त्वज्ञान तरंगिणी रूपी कृति का निर्माण किया गया । २३. ॐ ह्रीं विक्रमातीतादिकालविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
सुखविक्रमोऽहम् ।
विधाता नृपति विक्रम के पंद्रह सौ साठ जब वर्ष हैं बीते । तभी रचना हुई इसकी भाव दुर्भाव से रीते ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण हृदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२३॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२४) ग्रन्थसंख्यात्र विज्ञेया लेखकैः पाठक किल |
षटत्रिंशदधिका पंचशती श्रोतृजनैरपि ॥२४॥ अर्थ- इस ग्रन्थ की सब श्लोक संख्या पांच सौ छत्तीस है, ऐसा लेखक पाठक और श्रोताओं को समझ लेना चारिये। अर्थात् यह ग्रन्थ पांच सौ छत्तीस श्लोकों में समाप्त हुआ है । (मगर सम्परिति ३९७ श्लोक ही है )