Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 382
________________ ३७३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आत्म भावना से परांग मुख आत्म सुखामृत स्वाद रहित। दुानों में समय बिताता बंध भाव से सदा सहित ॥ पट्टरूपी उदयाचल पर सूर्य के समान भव्यरूपी कमलों को आन्द प्रदान करने वाले प्रसिद्ध भट्टारक भुवनकीर्ति हुए। उन्हीं के चरण कमलों का भक्त मैं ज्ञानभूषण भट्टारक हूँ। जिसने कि इस तत्त्वज्ञान तरंगिणी ग्रन्थ का निर्माण किया है । २१. ॐ ह्रीं सकलकीर्त्यादिनामविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | निर्नामोऽहम् । विधाता मूल संध के श्री आचार्य सकल कीर्ति अग्रणी थे । उन्हीं के अनुयायी आचार्य भुवन कीर्ति बहु गुणी थे | उन्हीं के चरणों का सेवन ज्ञान भूषण भट्टारक हैं । तत्त्वज्ञान तरंगिणि ग्रंथ का निर्माण कारक हैं | तरंगिणि ज्ञान की हमको तुम्हीं ने दी हैं हे आचार्य । धन्य जीवन उसे पाकर हुआ है सिद्ध सारा कार्य || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२१॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) क्रीणन्ति ये प्रविश्यमा तत्त्वज्ञान तरंगिणीम् । ते स्वर्गादिसुखं प्राप्य सिद्धयन्ति तदनन्तरम् ॥२॥ अर्थ- जो महानुभाव इस तत्वज्ञान तरंगिणी तत्त्वज्ञान रूपी नदी में प्रवेशकर क्रीड़ा अवगाहन करेंगे। वे स्वर्ग दिके सुखों को भोगकर मोक्ष सुख को प्राप्त होंगे स्वर्ग सुख भोगने के बाद उन्हें अवश्य मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी । २२. ॐ ह्रीं स्वर्गादिसुखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजात्मसौख्यालयोऽहम् । विधाता तरंगिणि ज्ञान में क्रीड़ा करें जो सुख के हैं इच्छुक | स्वर्ग सुख मोक्ष सुख होगा जो होते सदैव अनइच्छुक ||

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394