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३७७ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान कर्मो ने आवरण तुम्हारे ऊपर जैसे डाला है । तुम उन पर आवरण डाल दो जिन को तुमने पाला है। विकथाओं से मुख मोड़ कर तुम करो अब ।
___जिनागम का स्वाध्याय निज मेरे चेतन || यही ज्ञान का स्रोत हैं सौख्य दाता ।
इसी का करो अध्ययन मेरे चेतन ॥ स्वपर ज्ञान पाने की विधि भी यही है ।
तुम्हें भेद विज्ञान की प्राप्ति होगी | सरलता से तत्त्वों का निर्णय करोगे |
.. ह्रदय में सहज शान्ति की व्याप्ति होगी | तुम्हें होंगे समकित के दर्शन अनूठे |
तुम्हे आत्म दर्शन का अवसर मिलेगा || सहज ज्ञान धारा का निर्झर झरेगा ।
- तुम्हरा ह्रदय ज्ञान पाकर खिलेगा || विभावों के बंधन स्वयं होंगे ढीले ।
स्वभावों की महिमा ह्रदय में जगेगी ॥ महामोह मिथ्यात्व की क्रूर बदली ।
तुम्हें जागता लख स्वयं ही भगेगी || यही माता जिनवाणी का है संदेशा |
। यही तीर्थेशों की आज्ञा है पावन || इसे मान कर यदि चलोगे स्वपथ पर ।
तो सुख शान्ति पाओगे अपनी सुहागिन || ॐह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. ।
आशीर्वाद
दोहा . परम शुद्ध चिद्रूप ही त्रैकालिक निबंध । लखकर रवि शशि ज्योति भी हो जाती है मंद ||
- इत्याशीर्वाद :