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महाजयमाला विपदाओं से धबराकर यह तत्क्षण सत्पथ को तज देता। निज जीवन की रक्षा के हित वर्जित भावों को भज लेता॥
तत्त्व ज्ञान की गंगा पायी नित अवगाहन करने को । हिंसादिक पांचों पापों का मूल सर्वथा हरने को ॥ क्रोधादिक चारों कषाय की खेती अब बह जाएगी । निष्कषाय भावना सदा को ही निज में रह जाएगी | पंच महाव्रत धारूं पाचों समिति गुप्ति त्रय शुद्धि सहित । तेरह विध चारित्र पालकर पाप पुण्य से बनूं रहित ॥ धर्म ध्यान की शुभबेला का मैं समुचित उपयोग करूं । आज्ञा विचय अपाय विचय संस्थान विचय सब ह्रदय धरूं। फिर में शुक्ल ध्यान धारूंगा निर्विकल्प हो जाऊंगा । शुक्ल ध्यान के चारों पाये ध्याकर शिवपद पाऊंगा | इस क्रम से मैं सिद्ध बनूंगा त्रिभुवन शीर्ष मुकुटमणि बन। त्रिलोकाग्र पर सदा रहूंगा बात वलय तनु में ही तन || युगपत लोकालोक लखूगा सकल द्रव्य गुण पर्यायें । एक समय में ही पाऊंगा राग नहीं आने पाए | परम शुद्ध चिद्रूप ध्यान का फल में ही तो पाऊंगा । चारों गतियों के कुचक्रसे बच पंचम गति पाऊंगा | मिथ्या भ्रम रजनी की रेखा सदा सदा दुर्गण धामी । इसका ही विषरस पीपी कर होता हूं कुमार्गगामी ॥ ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा ध्रुव त्रैकालिक सिद्ध समंत । वर्तमान में भी यह है भगवान यही अरहंत महंत ॥ तत्त्व ज्ञान की रुचि होते ही ऐसा हो जाता है ज्ञान । फिर धीरे धीरे विकास कर हो जाता है यह. भगवान || पूर्णानंद रूप हो जाएं सभी जीव शिव सुखपाएं । शाश्वत समयसार निज ध्यायें कभी न कोई दुख पाएं |
Mernama