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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन पंचाचार स्वरूप जानकर चेतन बन पंचाचारी । महातपो धन आनंद घन बन तू ही तो है गुण धारी || जिसने भी संग किया पर का उसने दुख पाया । लोहा भी अग्नि संग रह के कष्ट भरता है | यह अनादि का नियम भूल गया तू चेतन । कर्म से जो न चिपकता वह बंध हरता है | जैसा बोया है बीज वैसा ही फल पाएगा । जैसा जो करता है वह वैसा ही तो भरता है ॥ शुद्ध चिदूप की महिमा जो ह्रदय लाता है । वही संसार दुख समुद्र पार करता है ॥
दोहा
परम शुद्ध चिद्रूप का महाअर्घ्य सुविशाल ।
यह स्वतंत्र चिद्रूप है परभावों का काल | ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि.।
जयमाला
छंद विजया जिनागम का स्वाध्याय निज ज्ञान के हित ।
सतत करना होगा तुम्हें मेरे चेतन || यही योग सर्वोच्च उत्तम मनोहर ।
महा पुण्य से पाया तुमने मेरे मन || . ये प्रथमानुयोग बड़े काम का है ।
ये करुणानुयोग स्वपरिणाम का है || ये चरणानुयोग स्वचारित्र दाता ।
ये द्रव्यानयोग परम धाम का है ॥ ये चारों ही अनुयोग कल्याणमय हैं ।
. मह बुद्धि दाता परम. श्रेष्ठ हित कर || सुरुचि पूर्वक करते हैं अध्ययन जो । .
वहीप्राप्त करते हैं निज ज्ञान सुखकर ||
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