Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 380
________________ ३७१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान • निज शुद्धात्म भावना से उत्पन्न सहज आनंद प्रधान । पर परिणाम नष्ट होते ही प्राणी पाता है निर्वाण ॥ १८. ॐ ह्रीं शास्त्राभ्यासादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । परिपूर्णबोधामृतोऽहम् । विधाता पुरुष जो सुगुरु से सुनकर तत्त्व का होता अभ्यासी । शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन नित्य का तत्त्व अभ्यासी ॥ शुद्ध चिद्रूप का अभ्यास ही शिव सौख्य दाता है । सिद्ध सम आत्मा जो जानता शिव सौख्य पाता है || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ||१८|| ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी - जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१९) जिनेशागमनिर्यासमात्रं श्रुत्वा गुरोर्वचः । विनाभ्यासं यदा याति तद्ध्यानं चाक्रमागतम् ||१९|| अर्थ- किन्तु जो पुरुष भगवान जिनेन्द्र के शास्त्रों के तात्पर्य मात्र को बतलाने वाले गुरु के वचनों को श्रवण कर अभ्यास नहीं करता बारबार शास्त्रों का मनन चिंतवन नहीं राता। उसके जो शुद्धच्द्रूिप का ध्यान होता है वह क्रम से नहीं होता । १९. ॐ ह्रीं जिनेशागमनिर्यासमात्ररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । स्वयंपूर्णोऽहम् । विधाता पुरुष जिनशास्त्र गुरु से सुन तत्त्व अभ्यास ना करता । ध्यान चिद्रूप अक्रम वह कहाता यही श्रुत कहता ॥ शुद्ध चिद्रूप का लक्षण ग्रंथ यह पढ़ के तुम जानो । शुद्ध चिद्रूप के भीतर चलो शिव सौख्य उर आनो || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१९॥

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