Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 379
________________ ३७० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन रत्नत्रय से युक्त अभेद समाधि न होगी जब तक प्राप्त। विषय कषायों में उलझेगा सुख की होगी अल्प न व्याप्ति॥ . (१७) क्रमतः क्रमतो याति कीटिका शुकवत्फलम् | नगस्थं स्वस्थितं ना च शुद्धचिद्रूपचिंतनम् ||१७॥ अर्थ- जिदस प्रकार कीड़ा क्रम क्रम से धीरे धीरे वृक्ष के ऊपर चड़कर शुक के समान फल का आस्वादन करती है। उसी प्रकार यह मनुष्य भी क्रम क्रम से शुद्धचिद्रूप का चितवन करता है। १७. ॐ ह्रीं कीटिकाफलभक्षणविकल्परहितशुद्धचिद्रपाय नमः | ज्ञानपीयूषहारोऽहम् | विधाता जिस तरह कीड़ी क्रम क्रम से वृक्ष ऊपर है चढ़ जाती। प्राप्त कर शुक समान सुफल स्वाद उसका वह पा जाती ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन एक संग जो न कर पाएँ । त्याग पर द्रव्य से ममता क्रमिक चिद्रूप निज ध्याएँ ॥ शुद्ध चिद्रूप हो तन में शुद्ध चिद्रूप हो मन में । शुद्ध चिद्रूप चिन्तन में शुद्ध चिद्रूप जीवन में || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ||१७|| ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१८). गुर्वादीनां च वाक्यानि श्रुत्वा शास्त्राण्यनेकशः । कृत्वाभ्यासं यदा याति तद्धिध्यानं क्रमागतम् ||१८|| अर्थ- जो पुरुष गुरु आदि के वचनों को भले प्रकार श्रवणकर और शास्त्रों का भले प्रकार अभ्यास कर शुद्धचिद्रूप का चितवन करता है उसके क्रम से शुद्धचिद्रूप का चिन्तवन ध्यान कहा जाता है । -

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