Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 377
________________ ३६८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन पूर्ण शुद्ध हूं तन प्रमाण हूँ गुण अनंत ज्ञानादि सहित । अविकल्पी हूं अमूर्तिक हूं पंचेन्द्रिय से पूर्ण रहित !! शुद्ध चिद्रूप के ध्यानी जगत में विरले होते हैं । किन्तु वे जो भी होते हैं एक दिन सिद्ध होते हैं | शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ||१३|| ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१४) जिनालयेषु सर्वेषु गत्वा कृवचनादिकम् । ततो लब्धा नरत्वं च रत्नत्रयविभूषणम् ||१४|| १४. ॐ ह्रीं जिनालयादिगमनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजालयोऽहम् । विधाता जिनालय पूजते हैं वे मनुज भव फिर से पाते हैं । रत्नत्रय पूर्ण पाते हैं ध्यान चिद्रूप ध्याते हैं ॥ शुद्ध चिद्रूप का उपवन सुरभि गुण से ये हैं संयुत । गंध जो इनकी लेता है वही होता है शिवसुख युत ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ||१४|| ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१५) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानबलात्कृत्वा विधिक्षयं । सिद्धस्थानं परिप्राप्य त्रैलोक्यशिखरे क्षणात् ॥१५॥ १५. ॐ ह्रीं विधिक्षयविकल्परहितशुद्धचिद्रपाय नमः । निर्विधिस्वरूपोऽहम् । विधाता

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