Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 368
________________ - ३५९ ... श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अंतरंग में निज परमात्म स्वरूप भावना भरी हुई । परम. सुखामृत में रति करता ज्ञान भावना हरी हुई ॥ अर्ध्यावलि . अष्टादशम अध्याय शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति का क्रम (१) श्रुत्वा श्रद्धाय वाचा ग्रहणमपि दृढं चेतसा यो विधाय, कृत्वांतःस्थैर्यबुद्ध्यापरमनुभवनं तल्लयं याति योगी। तस्य स्यात् कर्मनाशस्तदनु शिवपदं च क्रमेणेति शुद्ध चिद्रूपोऽहं हि सौख्य स्वभवमिहि सदानभव्यस्य नूनम् ||१|| अर्थ- जो योगी "मैं शुद्धचिद्रूप हूं" ऐसा भले प्रकार श्रवण और श्रद्धान कर, वचन और मन से उसे ही दृढ़ रूप से धारण कर, अन्तरंग को थिर कर; और पर पदार्थों को जानकर उससका (शुद्धचिद्रूप का) अनुभव और उसमें अनुराग करता है। वह आसन्न भव्य बहुत जल्दी मोक्ष जाने वाला योगी क्रम से समस्त कर्मो का नाशकर अतिशय विशुद्ध मोक्षमार्ग और निराकुलतामय आत्मिक सुख का लाभ करता है । १. ॐ ह्रीं श्रवणवचनग्रहणादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चित्सौख्यस्वरूपोऽहम् । छंद विधाता शुद्ध चिद्रूप हूं ऐसा श्रवण श्रद्धान कर प्राणी । वचन मन पूर्वक दृढ़ रूप से तुम धार लो प्राणी ॥ निजंतर में उसे थिर कर उसे सर्वोत्तम जानो । तुम्ही आसन्न उत्तम भव्य अपनी शक्ति पहचानो ॥ मोक्ष का मार्ग पा करके क्रमिक कर्मो को क्षय कर दो । शुद्ध चिद्रूप निधि पाओ आत्मिक सौख्य उर भर लो ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१॥ | ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. । ।

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