Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 369
________________ ३६० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन निश्चय से परमात्मा निष्क्रिय उपसम मूर्ति परम गुणवान। केवल ज्ञानादिक अनंत गुण का स्वामी है यह भगवान || (२) गृहिभ्यो दीयते शिक्षा पूर्व षट्कर्मपालने । व्रतांगीकरणे पश्चात्संयमग्रहणे ततः ॥२॥ अर्थ- जो मनुष्य गृहस्थ हैं उन्हें सबसे पहिले देवपूजा गुरु उपासना आदि छह आवश्यक कर्मो के पालने के पस्चात् व्रतों के धारण करने की और फिर संयम ग्रहण करने की शिक्षा देनी चाहिये । २. ॐ ह्रीं गृहस्थयोग्यषट्कर्मपालनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । .. नित्यानन्दरत्नोऽहम् । छंद विधाता शुद्ध चिद्रूप की शिक्षा निजंतर में ग्रहण करता । तिमिर मिथ्यात्व का क्षय कर शुद्ध समकित वरण करता। ग्रहस्थों को देव पूजा आदि आवश्यकी पालन । बाद में धार व्रत संयम ग्रहण शिक्षा हो अति पावन ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण हृदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । यतिभयो दीयते शिक्षा पूर्व संयमपालने । चिद्रूपचिंतने पश्चादयमुक्तो बुधैः क्रमः ॥३॥ अर्थ- परन्तु जो यति हैं निग्रन्थ रूप धारण कर वनवासी हो गये हैं- उन्हें सबसे पहिले संयम पालने की और पीछे शुद्धचिद्प के ध्यान करने की शिक्षा देनी चाहिये । ३. ॐ ह्रीं संयमपालनशिक्षायुक्तयतिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अभेदोऽहम् .। विधाता

Loading...

Page Navigation
1 ... 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394