Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 374
________________ ३६५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जब तक है चारित्र मोह का उदय तभी तक है संसार । बारहवें में क्षय होता है क्षय हो जाता सर्व विकार || अर्थ- यदि शुद्धचिद्रूप का चितवन किया जायगा, तो प्रतिक्षण कर्मो की निर्जरा होती चली जाएगी। और यदि पर पदार्थो का चितवन होगा, तो प्रतिसमय कर्म बंध होता रहेगा । इसमें कोई संदेह नहीं । ९. ॐ ह्रीं बन्धकारणान्यचिन्तारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्मलानन्दस्वरूपोऽहम् । विधाता .... शुद्ध चिद्रूप के बल से हुए सब सिद्ध अविकारी । निरंजन नित्य पद पाया अनंतों गुण के भंडारी || शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन कर्म से मुक्त करता है । द्रव्य पर का अल्प चिन्तन कर्म के बंध करता है || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥९॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. । - (90) सयोगक्षीणमिश्रेषु गुणस्थानेषु नो मृतिः । अन्यत्र मरणं प्रोक्तं शेषत्रिक्षपकै विना ॥१०॥ अर्थ- संयोग केवली क्षीणमोह मिश्र तथा आठवें नवमें और दशवे गुणस्थान की क्षपक श्रेणी में मरण नहीं होता। परन्तु इनसे भिन्न गुणस्थानों में मरण होता है । १०. ॐ ह्रीं मरणरहितसयोगादिगुणस्थानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अमरज्ञानस्वरूपोऽहम् । विधाता सयोगी क्षीण मोही मिश्र थल में ना मरण होता । क्षपक अष्टम नवम इसमें अंत तन का नहीं होता ॥ शेष के गुण स्थानों में मरण होता ही रहता है । गुणस्थानों का जय कर्ता मोक्ष के मध्य रहता है |

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