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३५८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन रागादिक मिथ्या विकल्प जालों से यह बाहर रहता || अविरति से भी नहीं मित्रता संयम सरिता में बहता ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।
निर्विकार दीपक स्व ज्योतिमय भ्रम अज्ञान तिमिर विनाशक। अविकारी है शुद्ध आत्मा केवलज्ञानमयी शासक ||. एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य हृदय में धारा है ।
राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
निर्विकार निज धर्म धूप ही कर्म नाश में सक्षम है । भाव पूर्वक कर्म नाश में होता नहीं कभी श्रम. है | एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है ।
राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. ।
निर्विकार भावों का तरु ही महामोक्ष फल दाता है । एकमात्र ज्ञायक स्वभाव ही केवल दृष्टा ज्ञाता है || एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है ।
राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है | ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि ।
निर्विकार भावों के अर्घ्य महान विश्व कल्याण मयी । पद अनर्घ्य के ये दाता हैं शुद्ध बुद्ध निर्वाणजयी | एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है ।
राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है ॥ ॐ ह्री अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञानं तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि. ।