________________
१०३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान रागों से भिन्न आत्मा है ज्ञायक स्वरूप आत्मानुभति । आत्मा का स्वाद मधुर पावन जिनशासन तो है निजानुभूति॥ सर्वदर्शी है ये सर्वज्ञ सर्व व्यापी है । शुद्ध चिद्रूप सदा से ही ज्ञान व्यापी है ॥१३॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१४)
स्मृतिमेति यतो नादौ पश्चादायाति किंचन ।
"
कर्मोदयविशेषोऽयं ज्ञायते हि चिदात्मनः ॥१४॥
अर्थ- यदि यह चैतन्य स्वरूप आत्मा किसी पदार्थ का स्मरण करता है तो पहिले वह पदार्थ उसके ध्यान में जल्दी प्रविष्ट नहीं होता। परन्तु एकाग्र हो जब यह बार बार ध्यान करता है, तब उसका कुछ स्मरण हो जाता है। इसलिये इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह आत्मा कर्मों से आवृत है।
१४. ॐ ह्रीं कर्मोदयविशेषरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानसुधास्वरूपोऽहम् ।
स्मृति धारणा से जानता धीरे धीरे I कर्म आवृत है अतः वस्तु जानता धीरे ॥ किन्तु चिद्रूप शुद्ध देखता युगपत सबको ।
कर्म आवरण रहित जानता युगपत सबको ॥१४॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) विस्फुरेन्मानसे पूर्वं पश्चान्नायाति चेतसि ।
किंचिद्विस्तु विशेषोऽयं कर्मणः किं न बुध्यते ॥१५॥
तथा पहिले ही पहल यदि किसी पदार्थ का स्मरण भी हो जाय तो उसके जरा ही विस्मरण हो जाने पर फिर बार बार स्मरण करने पर भी उसका स्मरण नहीं आता। इसलिये आत्मा पर कर्मो की माया जान पड़ती है। अर्थात् आत्मा कर्म के उदय से अवनत है यह स्पष्ट जान पड़ता है ।
१५. ॐ ह्रीं कर्मसामर्थ्यरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अनन्तशक्तिस्वरूपोऽहम् |