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२९४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन द्वैत भाव विद्रूपी हैं तो अंधकार उर में घन घोर । यदि अद्वैत भाव हो उर में तो हो जाती सम्यक् भोर ||
(१८) न संपदि प्रमोदः स्यात् शोको नापदि धीमताम् ।
आहोस्वित्सर्वदात्मीयशुद्धचिद्रूपचेतसाम् ||१८|| अर्थ- सदा शुद्धचिद्रूप में मन लगाने वाले बुद्धिमान पुरुषों को संपत्ति के प्राप्त हो जाने पर हर्ष और विपत्ति के आने पर विषाद नहीं होता। वे संपत्ति और विपत्ति को समान रूप से मानते हैं। १८. ॐ ह्रीं संपदापदरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानवैभवस्वरूपोऽहम् । प्राप्त संपत्ति हो तो हर्ष नहीं करता है । प्राप्त आपत्ति होतो शोक नहीं करता है ॥ चाहे संपत्ति हो चाहे विपत्ति रहता सम । शुद्ध चिद्रूप ध्यान से हुआ है यह सक्षम ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१८॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) स्वकीयं शुद्धचिद्रूपं ये न मुञ्चन्ति सर्वदा ।
गच्छन्तोऽप्यन्यलोकं ते सम्यगभ्यासतो न हि ॥१९॥ अर्थ- जो महानुभाव आत्मिक शुद्धचिद्रूप का कभी त्याग नहीं करते वे यदि अनन्य भव में भी चले जायं, तो भी उनके शुद्धचिद्रूप का अभ्यास नहीं छूटता। पहिले भव में जैसी उनकी शुद्धचिद्रूप में लीनता रहती है वैसी ही बनी रहती है। इसलिये हे आत्मन्! तू शुद्धचिद्रूप के ध्यान का इस रूप से सदा अभ्यास कर, जिससे कि भयंकर दुःख और मरण के प्राप्त हो जाने पर भी उसका विनाश न हो। वह ज्यों का त्यों बना रहे । १९-२० १९. ॐ ह्रीं अन्यलोकगमनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
चिल्लोकस्वरूपोऽहम् ।