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३२३ • श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान परव्यों से दुर्गति होती निज स्वद्रव्य से सुगति महान । पर द्रव्यों से विरत बनो तुम निज स्वद्रव्यसे नेह प्रधान॥ चंद्रमा से सिन्धु बढ़ता नदी जल बरसात से । मोह से ही कर्म बढ़ते रोग कच्चे भात से | पत्र बढ़ते अक्षरों से छंद से विस्तार ग्रंथ । पार्श्ववर्ती जीव से दुख सुख बढ़े हो कर्म द्वंद ॥ छोड़कर अभिलाषियों को वर्जनीय विभाव भाव । उन्हें तो बस चाहिए चिद्रूप निज का शुद्ध भाव ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है ।
तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥३॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. ।।
बृद्धि यात्येधसो वन्हिवृद्धौ धर्मस्य वा तृषा ।
चिंता संगस्य रोगस्य पीड़ा दुःखादि संगतेः ॥४॥ अर्थ- जिस प्रकार ईधन से अग्नि की धूप से प्यास की और परिग्रह से चिंता और रोग से पीड़ा की वृद्धि होती है। उसी प्रकार प्राणियों की संगति से दुःख आदि सहन करने पड़ते हैं। ४. ॐ ह्रीं परसंगतिकारणपीडादुखादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
आनन्दसागरोऽहम् ।। अग्नि ईधन से बढ़े अरु धूप से बढ़ती है प्यास । परिग्रह से बढ़े चिन्ता रोग से पीड़ा विकास ॥ उस तरह से प्राणियों की सुसंगति से दुख बहुत । सहन करना सदा पड़ता जीव को भव दुख बहुत || शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है ।
तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥४॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।