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३५० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन ज्ञान स्वभाव स्वतंत्र सदा ही त्रैकालिक ध्रुव है स्वाधीन। पर अवलंबन रहित सदा है नहीं किसी के है आधीन ||
(१४)
मुवं सर्वाणि कार्याणि संगं चान्यैश्च संगतिम् ।
भो भव्य शुद्धचिद्रूपलये वांछास्ति ते यदि ||१४|| अर्थ- हे भव्य! यदि तू शुद्धचिद्रूप में लीन होकर जल्दी मोक्ष प्राप्ति करना चाहता है तो तू सांसारिक समस्त कार्य, आभ्यान्तर दोनों प्रकार के परिग्रह और दूसरों का सहवास सर्वथा छोड़ दे। १४. ॐ ह्रीं सर्वकार्यादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
असङ्गचिदोकस्स्वरूपोऽहम् ।
मानव चिद्रूप शुद्ध में रत हो यदि मोक्ष चाहता जल्दी । सांसारिक कार्य छोड़ दे तज सभी परिग्रह जल्दी ॥ सहवास छोड़ दे पर का निज में ही कर निवास तू |
चिद्रूप शुद्ध का चिन्तन पाएगा मोक्ष वास तू ॥१४ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
मुक्ते बाह्ये परद्रव्ये स्यात्सुखं चेच्चितो महत् । .
साम्प्रतं किं तदादोऽतः कर्मादौ न महत्तरम् ||१५|| अर्थ- जब बाह्य परद्रव्य से रहित हो जाने पर आत्मा को महान सुख मिलता है। तब क्या कर्म आदि के नाश हो जाने पर उससे भी अधिक महान सुख प्राप्त न होगा ?। १५. ॐ ह्रीं बाह्यपरद्रव्यमुक्तत्वविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।।
सदाशिवोऽहम् ।
मानव जब बाह्य परिग्रह विरहित होते ही सुख मिलता है । तब कर्म नाश होने पर बहु महान सुख झिलता है ||