Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 360
________________ ३५१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान हमने अपनी स्वतंत्रता को परपरिणति आंधीन किया । निज परिणति को नहीं बुलाया इसे नहीं स्वाधीन किया। चिद्रूप शुद्ध दीपक लो कर्मो का क्षय करने को । इसका अभ्यास करो नित भव की पीड़ा हरने को ॥१५॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) इद्रियैश्च पदार्थानां स्वरूप जानतोऽगिनः । यो रागस्तत्सुखं द्वेषस्तदुःखं भ्रांतिजं भवेत् ॥१६॥ अर्थ- इन्द्रियों द्वारा पदार्थो के स्वरूप जानने वाले इस जीव को जो उनमें राग होता हैं, वह सुख और द्वेष होता है, वह दुख हैं, यह मानना नितांत भ्रम है, किन्तु जो पुरुष राग और द्वेष आदि से रहित है। समस्त पदार्थो का जानकार है। उसके जो समस्त प्रकार की आकुलता का त्याग है- निराकुलता है, वही वास्तविक सुख है । १६-१७ १६. ॐ ह्रीं रागद्वेषजनितसुखदुःखभ्रान्तकल्पनारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अभ्रान्तचैतन्योकस्स्वरूपोऽहम् । मानव इन्द्रिय द्वारा पदार्थ का जो स्वरूप ज्ञान होता है | उसमें तो राग होता है जो सुख व द्वेष होता है | वह सुख हैं यही मान्यता तेरा नितान्त विभ्रम है । अज्ञान भाव है तेरा पूरा पूरा मति भ्रम है ॥ अभ्यास शुद्ध चिद्रूपी विभ्रम विनाश करता है । अंतर का अंधियारा हर निर्मल प्रकाश करता है |॥१६॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१७) यो रागादिविनिर्मुक्तः पदार्थानखिलानपि । जाननिराकुलत्वं यत्तात्त्विकं सत्य तत्सुखम् ॥१७॥ १७. ॐ ह्रीं रागद्वेषरहिताखण्डज्ञानस्वरूपाय नमः । नीरागोकस्स्वरूपोऽहम् ।

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