Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 358
________________ ३४९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जड़ से भिन्न निजात्म ज्ञान का अनुभव ही सुखदायी है। यदि अनात्मा की प्रतीति है तो भव भव दुखदायी है || मानव हे आत्मन् यह चिदात्मा भव गर्व चूर करता है । अपने स्वभाव में रहकर वसु कर्म बंध हरता है ॥ रवि अमृत कल्पतरु चिन्तामणि कामधेनु कोई भी । सबपर यह विजय शील है इससे न बढ़ा कोई भी ॥ केवल चिद्रूप शुद्ध को ज्ञानी जन ही पाते हैं । वे ही निजात्मा में रह प्रतिपल इसको ध्याते हैं ॥१२॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१३) चिंता दुःखं सुखं शांतिस्तस्या एतत्प्रतीयते । तच्छांतिर्जायते शुद्धचिद्रूपे लयतोऽचला ॥१३॥ अर्थ- जिस अचल शांति से संसार में यह मालूम होता है कि यह चिन्ता है, यह दुःख हैं, यह सुख और शांति हैं, वह (शांति) इसी शुद्धचिद्रूप में लीनता प्राप्त करने से होती है। बिना शुद्धचिद्रूप में लीनता प्राप्त कि चिन्ता दुःख आदि के अभाव के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता । १४. ॐ ह्रीं चिन्तादुःखनाशनोपायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । सहजसौख्योकस्स्वरूपोऽहम् । छंद मानव जिस अचल शान्ति से इसको मालूम होता यह चिन्ता । यह दुख यह सुख शान्ति है यह शुद्ध चिद्रूप लीनता ॥ चिद्रूप शुद्ध लीनता बिन चिन्ता दुख बन जाते । दुख रहित स्वरूप ज्ञान भी यह जीव नहीं कर पाते ॥ चिद्रूप शुद्ध ध्रुवधामी ध्रुव की धुन से मिलता है । जब ध्रुव की धुन होती है तब ज्ञानाम्बुज खिलता है ॥१३॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।

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