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३२४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन वज्र वृषभ नाराच संहनन से भी होता कभी न काम । जाए सप्तम नरक जीव अरु निज बल से पाए ध्रुवधाम॥
(५) विकल्पः स्याज्डजीवे निगडनगजंबालजलधिप्रदावाग्न्यातापप्रगदहिमताजालसदृषः । वरं स्थानं छेत्री पविरविकरागस्ति जलदा
गदज्वालाशस्त्रीसममतिभिदे तस्य विजनम् ॥५॥ अर्थ- जीवों के विकल्प बेडीपर्वत कीचड़ समुद्र दावाग्नि का संताप रोग शीतलता और जाल के समान होते है। इसलिये उनके नाश के लिये छैनी वज सूर्य अगस्त नक्षत्र मेध औषध अग्नि और छुरी के समान निर्जन स्थान का ही आश्रय करना उचित है । ५. ॐ ह्रीं निगडनगादिनाशकारणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानरसायनस्वरूपोऽहम् ।
गीतिका विकल्पों के नाश हित सुस्थान निर्जन आश्रय । चाहिए' मुनिराज को निज आत्मा का आश्रय ॥ एक दूजे को मिटाने में निमित्त हैं द्रव्य बहु । राग द्वेषों को मिटाने में सबल समभाव बहु ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है ।
तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥५॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
तपसां बाह्यभूतानां विविक्तशयनासनम् ।
महत्तपो गुणोद्भूते रागत्यागस्य हेतुतः ॥६॥ अर्थ- बाह्य तपों से विविकक्त शयनासन (एकान्त स्थान में सौना और बैठना) तप को महान तप बतलाया है। क्योंकि इसके आराधन करने से आत्मा में गुणों की प्रगटता होती है। और मोह का नाश होता है ।