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३४६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन आत्म ज्ञान रूपी गंगा जल से न नव्हन मैं कर पाया । लौकिक शुद्धि हेतु जल कायिक जीवों को दुख पहुंचाया ॥ रूठे चेतन को देखो यह ज्ञान मनाने आया । चेतन ने भी दृग खोले चिद्रूप शुद्ध दरशाया ॥७॥
ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(८)
ज्ञेयावलोकनं ज्ञानं सिद्धानां भविनां भवेत् ।
अद्यानां निर्विकल्पं तु परेषां सविकल्पकम् ॥८॥
अर्थ- पदार्थो का देखना और जानना सिद्ध और संसारी दोनों के होता है । परन्तु सिद्धों के वह निर्विकल्प-आकुलता रहित और संसारी जीवों के सविकल्प आकुलता सहित होता है ।
८. ॐ ह्रीं ज्ञेयावलोकनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शुद्धज्ञानघनस्वरूपोऽहम् ।
मानव
दर्शन व ज्ञान सिद्धों को संसारी को भी होता । पर सिद्धों को अविकल्पी, सविकल्पी जग को होता ॥ चिद्रूप शुद्ध हूं मैं तो कोन जल्प है मन में । संकल्प विकल्प रहित है आभास न कोई तन में ॥८॥
ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(९)
व्यातकुलः सविकलुपः स्यान्निर्विक पो निराकुलः । कर्मबंधोऽसुखं चाद्ये कर्माभाव सुखं परे ॥९॥
अर्थ- जिस ज्ञान की मौजूदगी में आकुलता हो, वह ज्ञान सविकल्प और जिसमें आकुलता न हो वह ज्ञान निर्विकल्प कहा जाता है। उनमें सविकल्प ज्ञान के होने पर कर्मों का बंध और दुःख भोगना पड़ता है और निर्विकल्पक ज्ञान के हो पर कर्मों का अभाव और परम सुख प्राप्त होता है ।
९. ॐ ह्रीं व्याकुलताकारणसविकल्पत्वरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निराकुलशिवोकस्स्वरूपोऽहम् ।