Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 352
________________ ३४३ _. श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अवसर आया तो चूका मैं अपने को ही भूल गया । महाक्रूर अपराधीबनकर निज के ही प्रतिकूल गया | अर्थ- इन्द्रिय जन्य सुख, सुख नहीं है। किन्तु मनुष्यों की अभिलाषा रूप अग्न जन्य देवनाओं का प्रतीकार मात्र है। और वह सुख निराकुलरूप से और शुद्ध परिणाम से जो अपने चिदानंदस्वरूप आत्मा मैं स्थिति का होना है, वह है । ४. ॐ ह्रीं अभिलाषाग्निवेदनारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निहीरात्मसौख्यस्वरूपोऽहम् । छंद मानव इन्द्रिय सुख सुर बन कर भी अभिलषमयी दुख का घर। वेदना मिटाना है तो ध्याओ चिद्रूप सौख्यकर | निज चिदानंद चिद्रूपी आत्मा में सुस्थित होलो । परिणाम विशुद्ध करो अब निज सौख्य अनाकुल ले लो॥४॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । नो द्रव्यात्कीर्तितः स्याच्छुभस्वविषयतः सौधतौर्यत्रिकाद्वा, रूपादिष्टागमाद्वा तदितरविगमात् क्रीडनाधादृतुभ्यः । राज्यात्संराज्यमानात् बलवसनसुतात्सत्कलत्रात्सुगीताद् भूषाद् भूजागयानादिहजगति सुखं तात्त्विकं व्याकुलत्वात् ॥५॥ अर्थ- वह निराकुलतामय तात्विक सुख, न द्रव्य से प्राप्त हो सकता है, न कीर्ति, इंद्रियोंके शुभ विषय, उत्तम महल और गाजे बाजों से मिल सकता है। उत्तम रूप, इष्ट पदाथी का समागम, अनिष्टों का वियोग और उत्तमोत्तम क्रीड़ा आदि भी इसे प्राप्त नहीं करा सकते। छह ऋतु, राज्य राजा की ओर से सन्मान सेना, उत्तम वस्त्र, पुत्र मनोहारिणी स्त्री, कर्णप्रिय गायन, भूषण, एवं वृक्ष पर्वत और सवारी आदि से भी प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि द्रव्य आदि के संबंध से चित्त व्याकुल रहता है। और चित्त की व्याकुलता, निराकुलतामय सुख को रोकने वाली होता है। ५. ॐ ह्रीं सौधतूर्यत्रिकरूपेष्टागमक्रीडनादितुच्छसुखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।। शाश्वतातीन्द्रियसौख्यज्ञानसौधस्वरूपोऽहम् । मानव

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