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३३२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन जाग्रत निज शुद्धात्म तत्त्व में तो प्रमाद का नाम नहीं ।
तीनों योगों से विरहित है भव विभ्रम का काम नहीं | अर्थ- जो मनुष्य बुद्धिमान हैं। हित अहित के जानकार हैं। वे शुद्धचिद्रूप के ध्यान की सिद्धि के लिये जमीन के भीतर घरों में सुरंगों में समुद्र नदी आदि के तटों पर श्मसान भूमियों में और वनगुफा आदि निर्जन स्थानों में निवास करते हैं । १७. ॐ ह्रीं भूमिगृहगुहादिनिवासविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शाश्वतज्ञानगुहास्वरूपऽहम् ।
हरिगीतिका हित अहित को जानकर जो गुफा में रहते हैं सम । विपिन वन में सरिपुलिन शमशान आदिक में हैं सम || शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है ।
तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१७॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१८) विविक्तस्थाकाभावात् योगिनां जनसंगमः ।
तेषामालोकनेनैव वचसा स्मरणेन च ॥१८॥ अर्थ- एकांत स्थान के अभाव से योगियों को जनों के संघट्ट में रहना पड़ता है, इसलिये उनके देखने, वनच सुनने और स्मरण करने से उनका मंच चचंल हो उठता है। मन की चंचलता से विशुद्धि का नाश होता है। और विशुद्धि के बिना शुद्धचिद्रूप का चिंतवन नहीं हो सकता। तथा बिना उसके चिन्तवन किये समस्त कर्मो के नाश होने वाला मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता, इसलिये मोक्षाभिलाषो योगियों को चाहिये कि वे एकांत स्थान को समस्तच दुखों का दूर करने वाला मोक्ष का कारण और संसार का नाश करने वाला जान अवश्य उसका आश्रय करें । १८-१९-२०-२१ १८. ॐ ह्रीं जनसंगमालोकनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
बोधालोकस्वरूपोऽहम् ।
हरिगीतिका एकान्त बिन योगी जनों का संघ में होता निवास । विविध संगति से ह्रदय चंचल हुआ रुकता विकास ||