Book Title: Tattvagyan Tarangini Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Taradevi Pavaiya Granthmala

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Page 344
________________ ३३५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान राग द्वेष की पूँजी से होता न मुक्ति पथ में व्यवसाय । निजाभ्यास के बिना न रुकते भव समुद्र के अध्यवसाय॥ तुम्हें मुक्ति मंदिर मिलेगा सुनिश्चित । सहज आत्म अनुभव स्वरस खोज लाना ॥ दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूं निज शिव सुख के काज । एक शुद्ध चिद्रूप हित हो जाऊं मुनिराज || ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअयं नि. । . जयमाला ताटंक अनुभव रस की पियो रसायन फिर भव रोग हरो चेतन। मिथ्या तिमिर विनाशक सम्यक् दर्शन प्रगटाओ चेतन॥ इन्द्रिय विषय भोग रुचि तज दो जीवन सफल बनाओ तुम। प्राप्त अनंत चतुष्टय करके निज अनुभूति जगाओ तुम || मोह जन्य इस राग भाव को सदा सदा के लिए तजो । अपने निज ज्ञायक स्वभाव को प्रतिपल प्रतिक्षण नित्य भजो ॥ सकल वस्तुएं हैं असहाय वस्तु सभी समझा स्वाधीन। वस्तु वस्तु में कभी न मिलती होती कभी न पर आधीन॥ जीवों को सोने पर मरने की आशंका होती है । जगने पर आनंद मानता किन्तु मृत्यु तो होती है || एक समय में मर जाता है बचने का करता अभ्यास । मगर अमर होने की इच्छा से करता पर का विश्वास ॥ जो जन जन्म मरण से रहित आत्मा में थिर होते हैं । वे ही अमृतमयी मोक्ष पद पा परमात्मा होते हैं |

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