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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान मोह हो मंद तो समकित का वृक्ष फलता है । शुद्ध निज ध्यान की हो तो आत्म धर्म पलता है ॥ है गुण अनंत पास में मुहताज नहीं है । करती नहीं है याचना स्वभाव के लिए ॥ कर्मो का आवरण है मगर पूर्ण शुद्ध है । प्रस्तुत हुई है कर्म के अभाव के लिए | साधन है साध्य यही यही है साधक । यह मोक्ष स्वरूपी है सदा आप के लिए | चिद्रूप शुद्ध का ही इसे करना है स्वज्ञान । यह ज्ञान सुलभ है सदैव आप के लिए |
दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूं भव विडंबना भूल ।
एक शुद्ध चिद्रूप ही परम शान्ति का मूल | ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समनित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. । ।
जयमाला . छंद समान सवैया निज स्वरूप जो भूल रहे हैं वे कर्म के जाल वश रहे। होता शोक उन्हें सदैव ही वे रागों के बीच फंस रहे || आत्मा अजर अमर अविनाशी यह सिद्धान्त अटल अविचल है । ज्ञान भावना बिनो न होता ज्ञान कभी भी नियम अटल है। जीव अनंतों कर्म श्रृंखला से अपने को स्वयं कस रहा है। इस प्रकार यह हरा भरा रहता है भव दुख वृक्ष सदा ही॥ भव तरु मूल उखाड़ फेंकता ज्ञानी निज केहाथ सदा ही। महामोह मिथ्यात्व गरल पी मत बाले बन हम विवश रहे। मरने पर भी हम रोते हैं जीने पर भी हम रोते हैं । फँसे हुए अज्ञान भाव में मोह नींद में हम सोते हैं |