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३०३ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान भवोदधि पार शिव तरु है जहां आनंद मिलता है । सिद्ध पद प्राप्त होता है सौख्य उर पूर्ण झिलता है |
. (२) सुतादौ भार्यदौ वपुषि सदने पुस्तकधने, पुरादौ मंत्रादौ यशसि पठने राज्यकदने । गवादी भक्तादौ सुहृदि दिवि वाहे खविषये,
कुधर्मे वांछा स्यात् सुरतरुमुख मोहवशतः ॥२॥ अर्थ- इस दीन जीव की मोह के वश से पुत्र, पुत्री, स्त्री, माता, शरीर, घर, पुस्तक, धन, पुर नगर मन्त्र कीर्ति ग्रन्थ का अभ्यास राज्य युद्ध गौ हाथी भोजन, मित्र स्वर्ग सवारी इन्द्रियों के विषय कुधर्म कल्पवृक्ष आदि में वांछा होती है । २. ॐ ह्रीं सुतभार्यादिवाञ्छारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरीच्छस्वरूपोऽहम् ।
हरिगीता मोह वश इस जीव को पुत्रादि सुख की बांछा । राज्य धन गज कीर्ति मित्रों की सदा आकांक्षा ॥ इन्द्रियों के विषय सुख रस स्वर्ग और कुधर्म की । महत्वाकांक्षा ह्रदय में इस तरह के कर्म की | मोह का कैसा उदय है मूढ़ रत संसार में । मोह क्षय बिन नहीं जाता कभी भव के पार में | शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥२॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
किं पर्यायैर्विभावैस्तव हि चिदचितां व्यंजनार्थाभिधानरागद्वेषाप्तिवीजैर्जगति परिचितैःकारणै संसृतेश्च । मत्वैवं त्वं चिदात्मन् परिहर सततं चिंतनं मुंक्षु तेषांशुद्ध द्रव्ये चिति स्वे स्थितिमचलतयांतर्दशां सं विधेहि ॥३॥