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३०६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन जो मुनि आत्म ध्यान को तजकर रातों में बातें करते । घोर रसातल में जाने को अपनी साधु दशा हरते ||
इन्हें ही यह सौख्य का कारण जनम से मानता । मान अपना उन्हें मूरख देह जड़ निज जानता ॥ इन्हें पाने के लिए है यत्न शील सदैव ही । किन्तु ये सब पुण्य के आधीन होते सदा ही ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ||५||
ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(६)
हंस ! स्मरसि द्रव्याणि पराणि प्रत्यहं यथा ।
तथा चेत् शुद्धचिद्रूपं मुक्तिः किं ते न हस्तगा ॥६॥
अर्थ- हे आत्मन्! जिस प्रकार प्रतिदिन तू परद्रव्यं का समरण करा है। स्त्री पुत्र आदि को अपना मान उन्हीं की चिंता में मग्न रहता है। उसी प्रकार यदि तू शुद्धचिद्रूप का भी स्मरण करे। उसी के ध्यान और चिन्तवन में अपना समय व्यतीत करे, तो क्या तेरे लिये मोक्ष समीप न रह जाय । अर्थात् तू बहुत शीघ्र ही मोक्ष सुख का अनुबव करने
लग जाय ।
६. ॐ ह्रीं स्त्रीपुत्रादिचिन्तामग्नत्वरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
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आनन्दश्रीस्वरूपोऽहम् ।
हरिगीता
जिस तरह पर द्रव्य
का स्मरण करता रात दिन ।
मानकर पर द्रव्य अपना मग्न चिन्ता रात दिन | उस तरह चिद्रूप शुद्ध महान का हो स्मरण । समय बीते ध्यान चिन्तन में मिले फिर मुक्ति धन ॥ मोक्ष होगा निकट तेरे जिनागम का कथन है । मोक्ष सुख अनुभव करेगा जिनवरों का वचन है ||