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३१७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निज में बसना पर से खसना पीना नित्य अतीन्द्रिय रस। निज में ही दैदीप्यमन है निजानंद गृह उसमें बस ॥ स्वपर ज्ञान होते ही जानेगो तुम ।
देह पुद्गल से तुम पूर्णतः भिन्न हो ॥ गुण अनंतों सहित है ये चैतन्य सुत ।
शुद्ध आत्मा का भी ज्ञान होगा जरूर ॥ स्वपथ पर चलोगे तो सम्यक्त्व धन ।
ज्ञान चारित्र रत्नत्रयी पाओगे || पूर्ण संमय की महिमा सजेगी ह्रदय ।
आत्म बल से यथाख्यात होगा जरूर || मोह सम्पूर्ण क्षय होगा निज ध्यान से ।
चारों घाति विलय होंगे तत्काल ही ॥ पार संसार का शीघ्र पाओगे तुम ।
. एक दिन प्राप्त निर्वाण होगा जरूर || इसलिए आत्मा का ही निर्णय करो ।
आत्मा का ही चिन्तन करो रात दिन ॥ आत्मा की ही महिमा ह्रदय में धरो ।
उर में शुद्धात्म रस व्याप्त होगा जरूर | शुद्ध चिद्रूप का ही धरो ध्यान नित ।
शुद्ध चिद्रूप की सेवा ही तुम करो || शुद्ध चिद्रूप ही लक्ष्य में लो अब सतत ।
शुद्ध चिद्रूप निज प्राण होगा जरूर ॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समनिन्त श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि।
आशीर्वाद
दोहा ज्ञाता दृष्टा आप ही स्वयं सहज चिद्रूप ॥ यही परमम परमात्मा अपना आत्म स्वरूप ||
इत्याशीर्वाद :