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३०४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन स्वदेशी व्रत लिया है तो विदेशों में न तुम जाना ।
दिगम्बर वेश धारण कर मुक्ति के मार्ग पर आना || अर्थ- चिदात्मन्! संसार में चेन और अचतेन की जो अर्थ और व्यंजन पर्यायें मालूम पड़ रही है। वे सब स्वभाव नहीं। विभाव हैं। निंदित हैं। राग द्वेष आदि की और संसार की कारण हैं। ऐसा भले प्रकरा निश्चय कर तू इनका विचार करना छोड़ दे। और आत्मिक शुद्ध चिद्रूप को अपनी अंतदृष्टि से भले प्रकार पहिचान कर उसी में निश्चल रूप से स्थिति कर । ३. ॐ ह्रीं व्यअनार्थपर्यायरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निराकारस्वरूपोऽहम् । चेतन अचेतन अर्थ अरु पर्याय व्यंजन जान लो । ये स्वभाव नहीं अणुभर हैं विभाव पिछान लो ॥ राग द्वेषादिक विभावी भाव हैं संसार के । दृष्टि इन पर से हटाओ बंध हैं संसार के ॥ बनो अन्तर्दृष्टि आत्मिक जान निज चिद्रूप को । उसी में निश्चल सुथिर रह लखो आत्म स्वरूप को || शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥३॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) स्वर्ग रत्नै गृहै: स्त्रीसुतरथशिविकाश्वेभभृत्यैरसंख्यैभूषावस्त्रैः खगाद्यैर्जनपदनगरैश्चामरैः सिंहपीठः । छत्रैरस्त्रैर्विचित्रै र्वरतरशयनै जनै जनैश्च
लब्धैः पांडित्यमुख्यै नभवतिकपुरुषो व्याकुलस्तीव्रमोहात् ॥४॥ अर्थ- यह पुरुष मोह की तीव्रता के आकुलता के कारणस्वरूप सुवर्ण, रत्न, घर, स्त्री, पुत्र, रथ, पालकी, घोड़े, हाथी, भृत्य भूषण, वस्त्र माला, देश, नगर, चमर, सिंहासन, छत्र स्त्र शयन, भोजन और विद्वत्ता, आदि से व्याकुल नहीं होता ।