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२५७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
फिर तू संयम पथ पर आकर पंचमहाव्रत धारेगा । मुनि निर्ग्रथ दशा पाएगा पर से कभी न हारेगा ॥
अर्थ- यह व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार का रत्नत्रय शुद्धचिद्रूप के स्वरूप की प्राप्त में असाधारण कारण है। बिना दोनों प्रकार के रत्नत्रय को प्राप्त किये कदापि शुद्धचिद्रूप के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता ।
२१. ॐ ह्रीं निजस्वरूपोपलब्धिकारणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । कारणसमयसारोऽहम् ।
व्यवहार निश्चय द्वय प्रकारी रत्नत्रय कारण महान । असाधारण है यही चिद्रूप पाने में प्रधान ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥२१॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२२) स्वशुद्धचिद्रूपपरोपलब्धिः कस्यापि रत्नत्रयमंतरेणः ।
क्वचितकदाचिन्न च निश्चयोऽयं दृढोऽस्ति चित्ते मम सर्वदैव ॥२२॥ अर्थ- इस शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति बिना रत्नत्रय के आज तक कभी और किसी देश में नहीं हुई। सबको रत्नत्रय की प्राप्ति के अनन्तर से शुद्धचिद्रूप का लाभ हुआ है। यह मेरी आत्मा में दृढ निश्चय हैं।
२२. ॐ ह्रीं दृढ़चित्तविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अचलगुणरत्नोऽहम् । हरिगीता
प्राप्ति निज चिद्रूप की अब तक हुई है ना कभी । बिना रत्नत्रय कहीं भी प्राप्ति इसकी है नहीं ॥ सभी को पश्चात रत्नत्रय हुई है प्राप्ति यह । सुदृढ़ निश्चय आत्मा में हो गया है आज यह ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥२२॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपप्राप्त्यै रत्नत्रयप्रतिपादक द्वादशाध्याये निजानन्तगुणरत्नस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।