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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन
राग की भूमि से होता नहीं है ज्ञानोत्पन्न । ह्रदय में होता रहा हैसदा से रागोत्पन्न ॥
मैं ज्ञान भावना दीप ज्योति मय लाऊं ।
मोहान्धकार हर उर कैवल्य जगाऊँ ||
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे । मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
मैं ज्ञान भावना धूप धर्म मय लाऊं ।
वसु कर्मों पर तत्काल नाथ जय पाऊं ॥
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. ।
मैं ज्ञान भावना फल पाऊं समभावी ।
मैं महामोक्ष फल पाऊं ज्ञान स्वभावी ॥
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे । मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि. ।
मैं ज्ञान भावना के ही अर्घ्य बनाऊं ।
पदवी अनर्घ्य पाने को निज में आऊं ॥
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
• मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं नि. ।