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२९० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन
पिछी मयूर पास में रखना जीव दया का महा प्रतीक । काष्ठ कमंडल संग में रखना जो है शुचिता भाव प्रतीक ॥
होती है ।
११. ॐ ह्रीं मौनक्षमातापनयोगधारणादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । प्रशान्तसागरस्वरूपोऽहम् ।
जो भी चिद्रूप शुद्ध के ही संग व्रत करता शास्त्र स्वाध्याय तपों का ही आराधन करता ॥ निर्जन वन में निवास सकल परिग्रह तजता । अपने चिद्रूप शुद्ध का ही सदा वह भजता ॥ क्षमा व मौन योग आतापन धारण करता मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति वही जीव तो करता ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥११॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१२) शुद्धचिद्रूपके रक्तः शरीरादिपराङ्मुखः ।
राज्यं कुर्वन्न बंधेत कर्मणो भरतो यथा ॥१२॥
अर्थ- जो पुरुष शरीर स्त्री पुत्र आदि से ममत्व छोड़कर शुद्धचिद्रूप में अनुराग करने वाला है, वह राज्य करता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता । जैसे कि चक्रवर्ती राजा भरत। १२. ॐ ह्रीं शरीरादिपराङ्मुखविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्ममत्वसुखस्वरूपोऽहम् ।
जो पुरुष देह आदि से ममत्व तजता है । राजा होकर भी वह कर्मो से नहीं बंधता है ॥ चक्रवर्त्ती भरत की भांति हो ममत्व रहित । प्राप्त करता है मोक्ष सुख परम कैवल्य सहित ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षणं । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१२॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. ।