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२७८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन तीनों ही काल मोक्ष मार्ग खुला है चेतन । तीनों ही काल ज्ञान भाव घुला है चेतन ॥
परमात्मा तुम्हीं हो सिद्ध हो महंत हो । चिद्रूप शुद्ध में ही करो तुम सतत विराम ॥ दोहा -
महाअर्घ्य अर्पित करूं अभिनव ज्ञान स्वरूप । सर्व राग द्वेषादि हर अपना ही चिद्रूप ॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
गज़ल
पुष्प खिलता है पूर्ण ज्ञान शक्ति के बल से सौख्य होता है पूर्ण आत्मा के ही तल से ॥ शुद्ध अनुभव की कृपा से स्व ज्योति आयी है । पूर्ण संयम की दशा आज मैंने पायी है ॥ शुद्ध चिद्रूप ही आनंद अमृत का सागर । राग द्वेषादि रहित गुण अनंत की गागर ॥ कोई भी दोष नहीं रंच मात्र इसमें । पूर्ण सम्यक्त्व ज्ञान चरित्र का है यह सरवर ॥ निज से एकत्व पर से विभक्त तीनों काल ।
ज्ञान दर्शनमयी अनंत
सहज शिवकर ॥
है
शुद्ध है बुद्ध है सिद्धत्व से सुशोभित हैं । ध्रुव त्रिकाली है परम शान्त उजागर दिनकर ॥ छंद गज़ल इसी के आश्रय से मोक्ष प्राप्त होता है । जीव अरंहत सिद्ध पूर्ण आप्त होता है ॥ राग होता है तो फिर ज्ञान नहीं होता है । ज्ञान होता है तो फिर राग नहीं होता है ॥