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२५८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन
श्रेणी चढ़कर यथाख्यात चारित्रसहज ही पाएगा । मोहक्षीण कर घाति नाशकर पद अरहंत सुहाएगा ||
महाअर्ध्य
छंद गजल
शुद्ध चिद्रूप के महलों में तो उजाला किन्तु संसार में अंधेरा घोर काला है शुद्ध चिद्रूप की है रोशनी रवि से बढ़कर । इसका अंदाजे बयाँ पूर्णतः निराला है ॥ वही पाता है इसे जो स्वभाव में जगता । उसने इसके ही रंग में स्वयं को ढाला है ॥ मोह की माधुरी बाधक है इसके पाने में वही पाता है जिसने मोह क्षय कर डाला दोहा
महाअर्घ्य अर्पण करूं मन वच काय संवार । परम शुद्ध चिद्रूप ही ले जाता भव पार ॥
ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री त्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्यं नि. ।
जयमाला
छंद समान सवैया
भक्त अमर तुमको बनना है तो तुम भक्ति स्वयं की कर लो। अन्तर्मन की सकल कलुषता निज पुरुषार्थ शक्ति से हर लो || सौ सौ बार तुम्हें समझाया सौ सौ बार तुम्हें रोका है । सौ सौ बार शपथ दी तुमको सौ सौ बार तुम्हें टोका है ॥ पर तुम तो बेहोश रहे हो विषय कषायों में ही पड़कर । खोटे कृत्यों में रत रहते खोटे भावों में ही बहकर ॥ कैसे सत्पथ पर आओगे कैसे समझोगे तुम बोलो । तिलतिल अवसर बीत रहा है अब तो अपनी आँखे खोलो || अरे आयु घट रीत रहा है बूँद बूँद रिसता जाता है । कोई नही बचाने आता काल तुम्हें लेकर जाता है ||