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१०८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन शुद्ध आत्मा ही भव की जड़ छेद डालता है तत्क्षण | जब आत्म दृष्टि हो जाती है हो जाता है सम्यक् दर्शन॥ जो मनुज मार्ग पर चलता है ग्राम पा जाता । जो भी चलता है अन्य मार्ग पर नहीं पाता ॥ जो भी चिद्रूप शुद्ध का ही ध्यान करता है ।
जो भी वह चाहता है वही प्राप्त करता है ॥२२॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२३) शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिदुर्गमा मोहतोऽगिनाम् ।
तज्जयेऽत्यंतसुगमा किर्याकांडविमोचनात् ॥२३॥ अर्थ- यह मोहनीय कर्म महाबलवान है। जो जीव इसके जाल में जकड़े हैं उन्हें शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति दुःसाधध्य है, और जिन्होंने इसे जीत लिया है, उन्हें तप आदि क्रियाओं के बिना ही सुलभता से शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति हो जाती है । २३. ॐ ह्रीं क्रियाकाण्डरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ।
ज्ञानवीर्यस्वरूपोऽहम् । कर्म यह मोहनीय जाल में ही जकड़े हैं । मोही जीवों को यही मोहनीय पकड़े हैं | जो भी चिद्रूप शुद्ध से इसे विजय करता ।
बिना तप आदि क्रिया के वो पूर्ण सुख भरता ॥२३॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपप्राप्तिसुगमत्वप्रतिपादक चतुर्थाध्याये आनन्दघनस्वरूपाय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्घ्य
गीत कर्म का दोष नहीं दोष सभी मेरा है । श्री सदगुरु ने मुझे आज आके हेरा है ॥ शुद्ध चिद्रूप गुण अनंत का ही सागर है । कर्म के आवरण से ढकी ज्ञान गागर है |