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१५३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान ज्ञानमात्र में विचरण करने वाले द्रव्य दृष्टि होते । जो संशय का जल पीते वे ही पर्याय दृष्टि होते ||
हे आत्मन व्यवहार मार्ग.चिन्ता कषाय क्लेश संयुक्त । तथा शोक से जटिल देह से साध्य पराधीनता युक्त ॥ कर्मो को लाने में कारण भय आशा से व्याप्त सदा । है व्यामोह कराने वाला सांसारिक आती विपदा | पर निश्चय में किसी भांति की कोई कभी विपत्ति नहीं । तज व्यवहार मार्ग इस क्षण ही निश्चय बिन संपत्ति नहीं॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ |
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥५॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(६) न भक्तवृंदैन च शिष्यवर्ग न पुस्तकाद्यैर्न च देहमुख्यै- ।
नः कर्मणा कैन ममास्ति कार्य विशुद्धचित्यस्तु लयः सदैव ॥६॥ अर्थ- मेरा मन शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के लिये उत्सुक है, इसलिये न तो संसार में मुझे भक्तों की आवश्यकता है। और न शिष्यवर्ग पुस्तक और देह आदि से ही कुछ प्रयोजन हैं। एवं न मुझे कोई काम करना ही अभीष्ट है। केवल मेरी यही कामना है कि मेरी परिणति सदा शुद्धचिद्रूप में ही लीन रहे । सिवाय शुद्धचिद्रूप के वाह्य किसी पदार्थ में जरा भी जाय । ६. ॐ ह्रीं भक्तवृन्दशिष्यवर्गपुस्तकाादिरहितशुद्धचिन्मयस्वरूपाय नमः ।
चितिशक्तिसंपन्नोऽहम् ।
ताटंक मेरा मन चिद्रूप शुद्ध पाने को उत्सुक हैं स्वामी । मुझे न भक्तों की आवश्यकता अरु न प्रयोजन है स्वामी॥ पुस्तक देह अदि कुछ भी मुझको अभीष्ट है कभी नहीं। मेरी परिणति रहे शुद्ध चिद्रूप भावना सदा यही ॥