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२३८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन ग्यारह अंगपूर्व चौदह के पाठी उपाध्याय भगवान । सबको जिनवाणी का सार सिखाते रहते हैं श्रीमान ॥
. २०. ॐ ह्रीं मिथ्यात्वादिगुणस्थानरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निष्कंलकोऽहं ।
ताटक पहिले मिथ्या गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक जो । होते हैं चिद्रूप शुद्ध के ध्यानी प्राणी भी ना वो ॥ अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥२०॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(२१) पंचमादिगुणस्थानदशके तादृशोऽगिनः ।
स्युरिति ज्ञानिना ज्ञेयं स्तोकजीवसमाश्रते ॥२१॥ अर्थ- किंतु देशविरत पंचम गुणस्थान से लेकर अयोग केवली नामक चौदहवें गुण स्थान पर्यन्त के जीव ही शुद्ध चिद्रूप के ध्यानी व्रती होते हैं। इसलिये शुद्धचिद्रूप का ध्यान और व्रतों का पालन बहुत थोड़े जीवों में है । २१. ॐ ह्रीं गुणस्थानसंख्याविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
नित्यानन्दमंदिरस्वरूपोऽहं ।
वीरछंद पंचम से ले चौदह गुण स्थान तक होते थोड़े जीव । व्रती शुद्ध चिद्रूप ध्यान रत होते अल्प मनुष्य सदीव || - अतः शुद्ध चिद्रूप ध्यान थोड़े जीवों को होता है । व्रत धारी चिद्रूप ध्यान कर सर्व कर्म रज होता है | अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥२१॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
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