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२०९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
राग समूह सर्वथा निग्रह करने का मेरा निश्चय । राग मूल जड़ से काटूंगा पाऊंगा निज आत्म निलय ॥
२. ॐ ह्रीं कृशाकृशादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | ज्ञानघनस्वरूपोऽहम् ।
मैं देह तथा मैं कर्म तथा मैं नर हूं मैं नारी । मैं कृश हूं मैं स्थूल और गोरा काला भारी ॥ मैं निर्धन हूं धनिक तथा विद्वान मूर्ख मैं हूँ । ऐसे अहंकार में रहता पूर्ण मूढ़ मैं हूं जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है ।
जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥२॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(3)
अविद्वानप्यहंविद्वान् निर्धनो धनवानहम् ।
इत्यागिचिंतनं पुंसामहंकारो निरुच्यते ॥३॥
अर्थ- विद्वान हूं, निर्धन हूं धनवान हूं, इत्यादि रूप से मन में विचार करना अहंकार है। मूढ़ मनुष्य इसी अहंकार में चूर रहते हैं।
३. ॐ ह्रीं विद्वानाविद्वानापर्यायरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरहंकारोऽहम् ।
यह पर में एकत्व भाव ही भव दुख वर्धक है । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध हूं यह मति सम्यक् है || जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है ।
जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥३॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) ये नरा निरहंकारं निवतन्वंति प्रतिक्षणम् ।
अद्वैतं ते स्वचिद्रूपं प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥४॥
अर्थ- जो मनुष्य प्रति समय निरहंकारता प्रकट करते रहते हैं। अहंकार नहीं करते, उन्हें,